Monday 1 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 01 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

यदि आस्था के आधार पर ‘यह' की सत्ता स्वीकार कर ली जाय, तो 'यह' की आसक्ति का अन्त होते ही 'वह' की अनुरक्ति स्वत: जाग्रत होती है । आसक्ति और अनुरक्ति में एक बड़ा भेद यह है कि आसक्ति पराधीनता-जनित सुख-लोलुपता को जन्म देती है और अनुरक्ति जिसके प्रति होती है, उसके लिए रस-रूप होती है । इस दृष्टि से अनुरक्ति का बड़ा ही महत्त्व है । आसक्ति का अत्यन्त अभाव बिना हुए अनुरक्ति के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस कारण आसक्ति का सर्वांश में नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र विरक्ति से ही साध्य है । विरक्ति घृणा नहीं है, अपितु पराधीनता का अन्त करने में साधनरूप है। इस दृष्टि से विरक्तिपूर्वक ही अनुरक्ति प्राप्त होती है । आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति - इनसे जिसका सम्बन्ध है वह 'यह' और 'वह' से रहित है । संकेत भाषा में आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति 'मैं' का कार्य है, 'मैं' नहीं; कारण, कि आसक्ति और विरक्ति दोनों ही अनुरक्ति से अभिन्न होती हैं । अनुरक्ति ने उससे भिन्न का अनुभव ही नहीं किया, जिसकी वह अनुरक्ति है । अत: 'मैं' अनुरक्ति से अभिन्न हो, अनन्त को रस प्रदान करने में समर्थ है । जिस प्रकार 'मैं' आसक्ति से युक्त होकर पराधीनता, अभाव आदि में आबद्ध होता है, उसी प्रकार 'मैं' विरक्ति से अभिन्न होकर अपने ही में सन्तुष्ट होता है और अनुरक्ति से अभिन्न होने पर 'मैं' अनन्त को रस प्रदान करता है । इस दृष्टि से 'मैं' के सम्बन्ध में जितना कहा जाय, कम है, जो ‘कुछ नहीं' होकर 'सब कुछ' है और 'सब कुछ' होकर 'कुछ नहीं' है । यही 'मैं' की विलक्षणता है ।

यह नियम है कि जो, कुछ नहीं होता, अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की सीमा, नाप-तौल नहीं है, वह सभी से अभिन्न हो सकता है और उसमें सभी की स्थापना हो सकती है । इसी कारण अहम् में शरीर-भाव, जीव-भाव, ब्रह्म-भाव आदि की स्थापना हो सकती है; क्योंकि यदि 'मैं' कोई ऐसा पदार्थ होता, जिसका विवेचन बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव होता, तो उसमें किसी और की स्थापना सम्भव न होती । किन्तु अहम् में ही जगत् का बीज, तत्त्व की जिज्ञासा और अनन्त की प्रियता विद्यमान है । ममता, कामना एवं तादात्म्य का अन्त होने पर अहम् में जगत् का बीज शेष नहीं रहता, अर्थात् अहम् का दृश्य से सम्बन्ध नहीं रहता । इतना ही नहीं, दृश्य अहम् में विलीन हो जाता है और फिर तत्त्व-जिज्ञासा की पूर्ति तथा प्रीति की जाग्रति स्वत: हो जाती है । प्रीति दूरी तथा भेद को शेष नहीं रहने देती । दूरी के नाश में ही योग की और भेद के नाश में ही बोध की अभिव्यक्ति निहित है । इस दृष्टि से योग, बोध और प्रेम अहम् के ही रूपान्तर हैं । अर्थात् अहम् योग, बोध और प्रेम से अभिन्न हो जाता है । अहम् का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु ममता, जिज्ञासा एवं आस्था की स्वीकृति जिसमें भासित होती है वही अहम् है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 18-19)