Saturday, 30 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 30 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

आसक्ति दृश्य की रुचि को जीवित रखती है और विरक्ति दृश्य से अरुचि उत्पन्न करती है । अरुचि रुचि को खाकर स्वत: अनुरक्ति से अभिन्न कर देती है । रुचि और अरुचि द्वन्दात्मक स्थिति है । जिस प्रकार अग्नि काष्ठ को भस्मीभूत कर स्वत: शान्त हो जाती है, उसी प्रकार विरक्ति आसक्ति का अत्यन्त अभाव कर स्वयं अनुरक्ति से अभिन्न हो जाती है । अनूरक्ति द्वन्द्वात्मक नहीं है । द्वन्दात्मक स्थिति ही सीमित अहम् भाव को जीवित रखती है, जिसके रहते हुए यह समस्या हल नहीं होती कि 'में’ क्या है ? अनुरक्ति के प्रादुर्भाव में ही द्वन्दात्मक  स्थिति का नाश है, जिसके होते ही 'मैं' क्या है ? यह प्रश्न स्वत: हल हो जाता है । 'यह' से परे 'में' है - यह 'मैं' का परिचय नहीं है । 'मैं' के प्रति इतना मोह हो गया है कि उसको अस्वीकार करना बडा ही भय उत्पन्न करता है । इस भय से बचने के लिए मानव यह स्वीकार कर लेता है कि 'मैं’ शरीर आदि दृश्य से अतीत
हूँ ।

किसी की वास्तविकता का बोध तभी सम्भव होगा, जब उसके प्रति राग तथा द्वेष लेश-मात्र भी न हो । 'मैं' के न होने की बात सुनकर जो भय उत्पन्न होता है, यह 'मैं' का राग है और इस प्रश्न को हल किये बिना चैन से रहना, 'मैं' के प्रति द्वेष है । राग और द्वेष दोनों ही सम्बन्ध पुष्ट करते हैं । सम्बन्ध के रहते हुए बोध सम्भव नहीं है । कारण, कि सम्बन्ध स्वयं अस्तित्व के रूप में भासित होने लगता है । इसी कारण 'यह' के सम्बन्ध से 'मैं' ‘यह' जैसा प्रतीत होता है और 'मैं' अपने में 'यह' की आसक्ति अनुभव करता है । और ‘यह' से सम्बन्ध स्वीकार करने पर 'मैं', 'वह' जैसा तथा 'वह' की अनुरक्ति अनुभव करता है । 'यह' और 'वह', दोनों में यदि एकता स्वीकार की जाय, तो दो स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं हो सकते । 'यह' के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाय, तो स्वीकृति के कारण 'यह' की प्रतीति भले ही हो, पर उसकी प्राप्ति नहीं होती । जिसकी प्राप्ति नहीं होती, उसका न तो स्वतन्त्र अस्तित्व ही होता है और न वह अपने को अपने आप प्रकाशित ही करता है । इस दृष्टि से ‘यह' के अस्तित्व को स्वीकार करना 'यह' की आसक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । आसक्ति जीवन नहीं है, अपितु पराधीनता, जड़ता तथा अभाव की जननी है, जो किसी भी मानव को अभीष्ट नहीं है । अत: ‘यह' की सत्ता स्वीकार करना भूल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 17-18)