Thursday, 28
August 2014
(भाद्रपद शुक्ल हरितालिका तीज व्रत, वि.सं.-२०७१, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का विवेचन
'यह'
करके जिसको सम्बोधन करते हैं, उसे 'मैं' नहीं कह सकते । इस दृष्टि से कोई भी दृश्य 'मैं' नहीं है । 'वह' करके जिसमें आस्था करते हैं, उसे भी 'मैं' कहना भूल है । 'यह'
और 'वह' से विलक्षण 'मैं' हो सकता है । यह भी अनुमान मात्र है, अनुभव नहीं । अब विचार यह करना है कि 'यह' की ममता तथा 'तत्त्व' की जिज्ञासा,
क्या 'यह' में हो सकती है
? कदापि नहीं । 'यह' की ममता तथा 'तत्त्व' की जिज्ञासा
जिसमें है, क्या उसे 'वह' कह सकते हैं ? नहीं । इस दृष्टि से 'यह' और 'वह' से रहित 'मैं' होना चाहिये। पर
अब भी स्पष्ट बोध नहीं हुआ कि 'मैं' क्या
है ? आस्था और बोध में भेद है । आस्था में बोध का आरोप करना ज्ञान
नहीं है और बोध में आस्था करना आस्था नहीं है । आस्था उसमें होती है, जिसका बोध नहीं है । अर्थात् सुने हुए में आस्था होती है, जाने हुये में नहीं । जाने हुए में न तो आस्था ही होती है और न सन्देह ही।
सन्देह देखे हुए में होता है, बोध जाने हुए का होता है और आस्था
सुने हुए में होती है । 'मैं’ देखा हुआ नहीं है और न जाना हुआ है । अत : 'मैं'
के प्रति सन्देह नहीं होता और उसका बोध भी नहीं । 'मैं' किसी अन्य के द्वारा सुना भी नहीं है, उसका तो भास है । इस दृष्टि से किसी आस्था के आधार पर 'मैं' का निर्णय देना 'मैं'
का वास्तविक परिचय नहीं है और प्रतीति का आश्रय लेकर 'मैं' का विवेचन करना 'मैं'
का बोध नहीं है । 'मैं' के
ही द्वारा 'मैं ' की खोज करना,
'मैं' के परिचय में हेतु है ।
प्रतीत होने वाला ‘यह' और सुना हुआ 'वह', इन दोनों का सम्बन्ध किसमें है ? जिसमें है, क्या उसे 'मैं'
नहीं कह सकते ? परन्तु ऐसा कहने से भी तो 'मैं' के कार्य का परिचय होता है, स्वरूप का नहीं । कार्य कर्त्ता का विशेषण भले ही हो, पर स्वरूप नहीं है । 'यह' की प्रतीति
में ‘यह' का राग हेतु है और 'वह'
की आस्था में 'वह' की माँग
हेतु है । राग-रहित होने पर 'यह' से असंगता
स्वत: होती है, जिसके होते ही 'वह'
से अभिन्नता भी होती है । जिसने रागपूर्वक 'यह' से तादात्म्य स्वीकार किया था, उसी ने असंगतापूर्वक 'वह' से अभिन्नता प्राप्त की । ‘यह' की आसक्ति और 'वह' की अनुरक्ति
किसी एक ही में है । क्या उसी का नाम 'मैं' है ? यदि यह मान लिया जाय, तो आसक्ति
की तो निवृत्ति होती है और अनुरक्ति की जाग्रति । आसक्ति रहते हुए अनुरक्ति जाग्रत
नहीं होती और अनुरक्ति जाग्रत होने पर आसक्ति नहीं रहती । आसक्ति के रहते हुए अनुरक्ति
की माँग भले ही रहे, पर अनुरक्ति जाग्रत नहीं होती । अनुरक्ति
जाग्रत होने पर आसक्ति का लेश भी नहीं रहता, अर्थात् आसक्ति के
अभाव में ही अनुरक्ति की जाग्रति है । क्या अनुरक्ति आसक्ति के समान नाशवान है ?
क्या अनुरक्ति में भी आसक्ति के समान पराधीनता, जड़ता तथा अभाव है ? कदापि नहीं । अनुरक्ति अविनाशी है
और जड़ता, पराधनिता, अभाव से रहित है । आसक्ति
का परिणाम किसी भी मानव को अभीष्ट नहीं है । इस कारण आसक्ति के नाश का प्रश्न मानव-मात्र
में है। आसक्ति का मूल, दृश्य के अस्तित्व को स्वीकार कर,
उसमें सत्यता तथा सुन्दरता का आरोप करना है । दृश्य में सत्यता तथा सुन्दरता
का आरोप करना अविचार-सिद्ध है । विचार का उदय होते ही दृश्य में सत्यता तथा सुन्दरता
शेष नहीं रहती और फिर आसक्ति विरक्ति के रूप में परिणत हो जाती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 15-17)।