Wednesday 27 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 27 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

“मैं” का विवेचन

'मैं' का भास तथा 'यह' की प्रतीति मानव-मात्र को स्वभाव से होती है, पर उसका अर्थ यह नहीं है कि भास-मात्र से ही  'मैं' की वास्तविकता का परिचय होता है । 'मैं' का भास होने पर भी  'मैं' क्या है ? यह प्रश्न स्वत: उत्पन्न होता है । अपने सम्बन्ध में दूसरों के द्वारा जो कुछ सुना है, वह 'मैं' की वास्तविकता का परिचय नहीं है । ऐसी दशा में अपने सम्बन्ध में अपना क्या निर्णय है, इसका स्पष्टीकरण करना अनिवार्य है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों ही अवस्थाओं में 'मैं' का भास है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि  'मैं' कोई ऐसी वस्तु है, जो अवस्थाओं से विलक्षण है । अवस्थाओं की प्रतीति है और 'मैं' का भास है । अवस्थाओं से तादात्म्य रखते हुए  'मैं' का बोध सम्भव नहीं है । अवस्थाओं से असंग होने पर ही 'मैं' का वास्तविक परिचय सम्भव है । जाग्रत और स्वप्न के सम्बन्ध से मानव अपने को सुखी और दुखी अनुभव करता है । इससे यह विदित होता है कि सुख-दुःख का भोग दृश्य के सम्बन्ध से सिद्ध होता है । सुषुप्ति में सुख-दुःख का भास नहीं है ।

इससे यह मानना ही पड़ता है कि प्रतीति अर्थात् दृश्य से असंग होने पर ही 'मैं' की वास्तविकता का अनुभव हो सकता है, अर्थात् जब तक जाग्रत में सुषुप्तिवत् न हो जायँ, तब तक 'मैं' के सम्बन्ध में कुछ भी अनुभव सम्भव नहीं है । जाग्रत में सुषुप्तिवत् होने के लिए क्रियाशीलता तथा चिन्तन से रहित होना अनिवार्य है । वह तभी सम्भव होगा, जब जिज्ञासा-पूर्ति के लिए वर्तमान कर्त्तव्यकर्म विधिवत्, फलासक्ति रहित पूरा कर दिया जाय । ऐसा करने से आवश्यक संकल्पों की पृर्ति और अनावश्यक संकल्पों का त्याग करने की सामर्थ्य आ जायगी । आवश्यक संकल्प की पूर्ति विद्यमान राग की निवृत्ति में हेतु है और संकल्प-पूर्ति के सुख का भोग न करने पर नवीन राग की उत्पत्ति नहीं होती । विद्यमान राग की निवृत्ति हो जाय और नवीन राग उत्पन्न न हो, तब मानव राग-रहित होकर जाग्रत में ही सुषुप्ति का अनुभव कर सकता है । जाग्रत-सुषुप्ति में जड़ता का दोष नहीं रहता और सुषुप्ति के समान दृश्य से सम्बन्ध टूट जाता है । जाग्रत में जब दृश्य से सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वत: 'मैं' क्या हूँ ? यह प्रश्न हल हो जाता है । 'मैं' का वर्णन किसी करण अर्थात् इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव नहीं है; कारण, कि यह सब तो दृश्य ही हैं । दृश्य के सहयोग से उसका वर्णन नहीं हो सकता, जिसको दृश्य की प्रतीति है । दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही अपने द्वारा अपना परिचय होता है । बस, यही 'मैं' क्या हूँ ? इस प्रश्न को हल करने का उपाय है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 14-15)