Tuesday, 26
August 2014
(भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का स्वरूप
जिज्ञासु और भक्त में अन्तर केवला इतना है कि जिज्ञासु दृश्य के स्वरूप
को जानकर दृश्य से विमुख होता है और भक्त उसे अपना न मानकर । दृश्य से विमुख होने में
दोनों समान हैं । जिज्ञासु जानने के पश्चात् किसी की सत्ता स्वीकार करता है और भक्त
बिना ही जाने, विश्वास के आधार पर ही अपने प्रभु की सत्ता स्वीकार कर लेता है ।
जिज्ञासु जिज्ञासा होकर उस अनन्त से अभिन्न हो जाता है जिसकी वह जिज्ञासा
थी और भक्त भक्ति होकर अपने प्रभु से अभिन्न हो जाता है । जिज्ञासु जिज्ञासापूर्ति
होने पर अमरत्व को प्राप्त करता है और भक्त भक्ति होकर अपने प्रेमास्पद के प्रेम को
प्राप्त करता है । जिज्ञासु का 'मैं' अमरत्व से अभिन्न हो जाता है
और भक्त का 'मैं' प्रेमास्पद का प्रेम हो
जाता है ।
विषयी का 'मैं'
एकमात्र विषयों की आसक्ति के रूप में ही प्रतीत होता है, जिज्ञासु का ‘मैं' अमरत्व से अभिन्न हो जाता है और भक्त
का ‘मैं' प्रेम हो जाता है । जो ‘मैं' विषयों
की आसक्ति के रूप में प्रतीत होता है, वह अभावरूप है,
क्योंकि विषयासक्ति में जीवन नहीं है । जिज्ञासु का 'मैं' जिज्ञासाकाल में केवल जिज्ञासा है और जिज्ञासा की
पूर्ति में उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है; क्योंकि जिज्ञासा
उससे अभिन्न हो जाती है, जिसकी वह जिज्ञासा थी । भक्त का ‘मैं'
आरम्भ में तो प्रभु का विश्वास और प्रभु के सम्बन्ध के रूप में प्रतीत
होता है, पर अन्त में प्रभु का प्रेम हो जाता है । प्रेम और प्रेमास्पद
में जातीय एकता है । इस दृष्टि से 'मैं' अभाव, अमरत्व या प्रेम ही है, और
कुछ नहीं है ।
(मानव
सेवा संघ के ग्रन्थ 'जीवन दर्शन' से साभार)
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 13)।