Monday 25 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 25 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

जिज्ञासा की पूर्ति वर्तमान जीवन का प्रश्न है, भविष्य का नहीं । अत: जिज्ञासा जाग्रत - होने पर जब तक हल न हो जाय, तब तक किसी अन्य प्रवृत्ति का जन्म नहीं होना चाहिये । यदि किसी की जिज्ञासा इतनी सबल तथा स्थायी नहीं है, जो वर्तमान की वस्तु हो, तो ऐसे जिज्ञासुओं को चाहिये कि वे जिज्ञासा को सबल और स्थायी बनाने के लिये निरन्तर इन्द्रिय-दृष्टि पर बुद्धि-दृष्टि को लगाये रखें । उन्हें इन्द्रिय-ज्ञान पर बुद्धिज्ञान से विजय प्राप्त करनी होगी । जिस काल में बुद्धि का ज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान को खा लेगा, उसी काल में जिज्ञासा वर्तमान जीवन की वस्तु हो जायेगी । फिर 'मैं' क्या हूँ ? यह प्रश्न स्वत: हल हो जायेगा । बुद्धि के ज्ञान का अनादर होने पर जिज्ञासा की जागृति नहीं हो सकती, क्योंकि बुद्धि के ज्ञान के अनादर से इन्द्रिय-ज्ञान का आदर होने लगता है, जो राग को उत्पन्न करने में हेतु है । राग की उत्पत्ति हो जाने पर इन्द्रियाँ विषयों के अधीन, मन इन्द्रियों के अधीन और बुद्धि मन के अधीन हो जाती है । इससे बेचारा प्राणी जड़ता में आबद्ध हो जाता है; परन्तु बुद्धि के ज्ञान का आदर होने पर इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं, मन निर्विकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है और बुद्धि सम हो जाती है । उससे जिज्ञासा की पूर्ण जागृति और उसकी पूर्ति की सामर्थ्य स्वत: आ जाती है ।

बुद्धि के ज्ञान का आदर होने पर दृश्य के स्वरूप का और अपने कर्त्तव्य का भी ज्ञान हो जाता है, अर्थात् बुद्धि के ज्ञान में कर्त्तव्य का तथा दृश्य के स्वरूप का ज्ञान भी निहित है । जो साधक दृश्य के स्वरूप को भलीभाँति जान लेते हैं, वे रागरहित होकर प्रत्येक दशा में जिज्ञासु हो सकते हैं, अर्थात् उनके लिये कोई प्रवृत्ति अपेक्षित नहीं रहती । किन्तु जो साधक दृश्य के स्वरूप को पूर्णरूप से नहीं जान पाते, वे पहले कर्त्तव्यनिष्ठ होकर पीछे जिज्ञासु होते हैं । जिज्ञासा की जागृति के लिए रागरहित होना अनिवार्य है, चाहे प्रवृत्ति द्वारा हो अथवा दृश्य के वास्तविक स्वरूप को जानकर । जो साधक सरल विश्वास के आधार पर अपने को भक्त मान लेता है, वह स्वभाव से ही समस्त विश्व से सम्बन्ध-विच्छेद कर देता है और अपने प्रभु से नित्य सम्बन्ध स्वीकार कर लेता है । उसमें न तो अपना कोई बल रहता है और न किसी प्रकार का संदेह ही रहता है । जिनसे उसने सम्बन्ध स्वीकार किया है, उनके विश्वास और उनकी प्रीति को ही वह अपना जीवन मानता है । देह, गेह आदि किसी से उसका सम्बन्ध नहीं रहता । वह प्रत्येक कार्य अपने प्रभु के नाते ही स्वीकार करता है । कार्य के अन्त में स्वभाव से ही प्रभु की वह स्मृति उदित होती है, जो प्रीति के स्वरूप में बदलकर उसे प्रियता से अभिन्न कर देती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 11-13)