Sunday, 24 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 24 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

अनित्य जीवन का और नित्य जीवन का आश्रय बिना लिये 'मैं' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । अनित्य जीवन के साथ मिलाने से 'मैं' अनेक मान्यताओं के रूप में प्रतीत होता है और मान्यता के अनुरूप ही कर्त्तव्य तथा राग का जन्म होता है । कर्त्तव्य राग-निवृत्ति का साधन है । अत: जिस प्रकार औषधि की आवश्यकता रोग-काल में होती है, आरोग्य-काल में नहीं, उसी प्रकार कर्त्तव्य की प्रेरणा राग-निवृत्ति के लिये ही होती है । राग-रहित होते ही अनित्य जीवन से तो सम्बन्ध टूट जाता है और नित्य जीवन से अभिन्नता हो जाती है; क्योंकि अनित्य जीवन और नित्य जीवन में देश-काल की दूरी नहीं है । अनित्य जीवन की भिन्नता और नित्य जीवन की अभिन्नता के मध्य में  'मैं' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु कभी देखने में नहीं आती । हाँ, यह अवश्य है कि अनित्य जीवन के सम्बन्ध से जो आसक्ति उत्पन्न हो गयी थी, वह नित्य जीवन से अभिन्नता होते ही प्रीति के रूप में बदल जाती है । जिस प्रकार पहले अनित्य जीवन और उसकी आसक्ति प्रतीत होती थी, उसी प्रकार तब नित्य जीवन और उसकी प्रीति ही रह जाती है । अन्तर केवल इतना ही है कि अनित्य जीवन और उसकी आसक्ति तो विनाशी है तथा नित्य जीवन और उसकी प्रीति अविनाशी है ।

जिज्ञासा के उदय में साधक अकाम होता है और पूर्ति में आप्तकाम हो जाता है, यही वास्तविक जीवन है । अब यदि कोई कहे कि जिज्ञासापूर्ति के लिये साधक को किस साधन की अपेक्षा है ? तो कहना होगा कि भोग के परिणाम की अनुभूति के आधार पर तो जिज्ञासा जाग्रत होती है और समस्त दृश्य से विमुख होने पर जिज्ञासा की पूर्ति होती है । समस्त दृश्य से विमुख होने की सामर्थ्य उस अनन्त की अहैतुकी कृपा से स्वत: प्राप्त होती है, जो स्वभाव से ही सभी का परम सुहृद है । अथवा यों कहो कि जो उत्पत्ति, विनाश और देश-काल की दूरी से रहित है, उसी की अहैतुकी कृपा से दृश्य से विमुख होने की सामर्थ्य जिज्ञासु को प्राप्त होती है । अत: दृश्य की विमुखता ही जिज्ञासा की पूर्ति का सुगम और अन्तिम साधन है । जब किसी कारण से जिज्ञासु मिली हुई सामर्थ्य का सदुपयोग नहीं कर पाता, तब वही कृपा सद्गुरु के स्वरूप में मूर्तिमान-होकर जिज्ञासा की पूर्ति कर देती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 10-11)