Friday, 22
August 2014
(भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का स्वरूप
साधनरूप 'मैं'
यद्यपि तीन भागों में विभाजित है - विषयी, जिज्ञासु
तथा भक्त । उनमें से विषयी भाव की मान्यता तो दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होने देती;
किन्तु जिज्ञासा तथा भक्तभाव की मान्यताएँ दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद
करने में समर्थ हैं । अपने को विषयी मान लेने में उत्कृष्ट भोगों की ही रुचि दृढ़ होती
है, जो दृश्य से सम्बन्ध जोड़ती है । दृश्य से सम्बन्ध रहते हुए
'मैं क्या हूँ' ? यह प्रश्न हल नहीं हो सकता ।
ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के द्वारा परिवर्तनशील जीवन को सुन्दर बनाने का अर्थ यह
है कि उस व्यक्तित्व की आवश्यकता समाज को हो जाय और उसे समाज की आवश्यकता न रहे । अथवा
यों कहो कि उसकी आवश्यकता को समाज अपनी ही आवश्यकता समझने लगे । यदि समाज की उदारता,
सेवा एवं स्नेह के आधार पर व्यक्तित्व का मोह सुरक्षित रहा, तो भी - यह प्रश्न हल नहीं होगा कि 'मैं क्या हूँ’ ?
'मैं क्या हूँ' ? इस प्रश्न
को वही साधक हल कर सकता है, जो समाज का ऋणी न हो और समाज की उदारता
की दासता में आबद्ध न हो । समाज का ऋणी न रहने पर व्यक्ति का मूल्य समाज से अधिक हो
जाता है और समाज की उदारता का भोग न करने पर वह व्यक्तित्व के मोह से रहित हो जाता
है । व्यक्तित्व के मोह का अन्त होते ही तीव्र जिज्ञासा जाग्रत होती है, जो 'मैं क्या हूँ'? इस समस्या को हल करने में समर्थ है । जिस काल में जिज्ञासा माने हुए सभी सम्बन्धों
को खा लेती है, उसी काल में उसकी पूर्ति हो जाती है । तब 'मैं' नित्य जीवन से अभिन्न हो जाता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 09-10)।