Thursday, 21
August 2014
(भाद्रपद कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का स्वरूप
देह के साथ अपने को मिला लेना ही दृश्य के साथ मिल जाना है, पर उस देह के प्रति भी
अनेक मान्यताएँ होती हैं, जो साधन-रूप हैं । जैसे 'मैं हिन्दुस्तानी हूँ ', अत: हिन्दुस्तान का ह्रास-विकास
मेरा ह्रास-विकास है । उसी प्रकार देश, जाति, मत, सम्प्रदाय, पद, कुटुम्ब और कार्यक्षेत्र के अनुरूप अनेक मान्यताओं के साथ हम अपने को मिला
लेते हैं, पर सभी मान्यताओं की भूमि केवल देह है । इस दृष्टि
से देह साधन का क्षेत्र है; परन्तु अन्तर यह हो जाता है कि केवल
देह के साथ मिले रहने से तो पशुता के समान केवल भोग की ही रुचि उत्पन्न होती है,
पर साधनरूप मान्यताओं के साथ मिलने से भोग-प्रवृत्ति में भी एक मर्यादा
आती है और उसके साथ-साथ भोग-निवृत्ति की लालसा भी जाग्रत हो जाती है; क्योंकि भोग-प्रवृत्ति का परिणाम किसी को अभीष्ट नहीं है ।
साधनरूप समस्त मान्यताएँ दो भागों में विभाजित हैं । एक भाग तो वह है, जिसमें अपने को सुन्दर
बनाने वाली मान्यताएँ हैं और दूसरा वह भाग है, जिसमें दूसरों
के अधिकार की रक्षा करने वाली मान्यताएँ हैं । अथवा यों कहो कि अपने को सुन्दर बनाकर
दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना है । दूसरों के अधिकार की रक्षा से जब राग की निवृत्ति
हो जाती है, तब स्वत: समस्त दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता
है । दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही जिज्ञासा की पूर्ति अपने आप हो जाती है । फिर
यह प्रश्न कि मैं क्या हूँ ? हल हो जाता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 08-09)।