Wednesday,
20 August 2014
(भाद्रपद कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७१, बुधवार)
“मैं”
का स्वरूप
जीवन का अध्ययन करने पर यह प्रश्न स्वाभाविक उत्पन्न होता है कि मैं क्या
हूँ ? यह नियम है कि प्रश्न की उत्पत्ति अधूरी जानकारी में ही होती है । जिसके सम्बन्ध
में कुछ नहीं जानते, अथवा पूरा जानते हैं, उसके सम्बन्ध में प्रश्न की उत्पत्ति नहीं होती । इस दृष्टि से यह सिद्ध होता
है कि 'मैं क्या हूँ ', इस सम्बन्ध में
प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ अवश्य जानता है । हाँ, यह अवश्य है
कि वह जानना विवेकपूर्वक न हो, अपितु विश्वास के आधार पर हो;
क्योंकि विवेकपूर्वक जान लेने पर तो निस्संदेहता आ जाती है, फिर प्रश्न की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती ।
विकल्परहित विश्वास ज्ञान न होने पर भी ज्ञान - जैसा प्रतीत होता है ।
उसी विश्वास के कारण यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'मैं क्या हूँ’ ? क्योंकि 'मैं' की अस्वीकृति किसी
को नहीं है । यद्यपि केवल स्वीकृति को 'मैं' नहीं कह सकते, तो भी हम स्वीकृति के स्वरूप में अपने
को मानते हैं । कभी-कभी तो दृश्य के साथ मिलकर अपने को मान लेते हैं और कभी श्रवण की
हुई स्वीकृति को भी 'मैं' मान लेते हैं
। जब हम दृश्य के साथ मिलकर अपने को मानते हैं, तब कामनाओं का
उदय होता है और वे सभी कामनाएँ इन्द्रियजन्य स्वभाव के अनुरूप होती हैं, अर्थात् इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कराने वाली होती हैं । यद्यपि विषय-प्रवृत्ति
के अन्त में प्राप्ति कुछ नहीं होती, अपितु शक्तिहीनता,
जड़ता एवं परतंत्रता की अनुभूति होती है । उस अनुभूति के आधार पर ही जिज्ञासा
उत्पन्न होती है कि 'मैं' क्या हूँ ?
अथवा यों कहो कि सामर्थ्य, चिन्मयता एवं स्वाधीनता
की माँग उत्पन्न होती है । इस दृष्टि से 'मैं ' का अर्थ हो जाता है, उसकी लालसा, जिसमें जीवन है, सामर्थ्य है, स्वाधीनता
है ।
जब तक भोग प्रवृत्ति के परिणाम की वेदना नहीं होती, तब तक तो 'मैं' का अर्थ रहता है, भोगवासनाओं
का समूह । यद्यपि भोग-वासनाएँ जिज्ञासा को मिटा नहीं पातीं, परन्तु
उसमें शिथिलता अवश्य आ जाती है । उसी स्थिति में प्राणी को कभी भोगवासनाएँ और कभी जिज्ञासा,
दोनों ही अपने में प्रतीत होती हैं, अथवा यों कहो
कि जिज्ञासा और भोगवासनाओं का द्वन्द्व रहता है । उस द्वन्द्व का अन्त करने के लिये
ही प्राणी अपने को साधक मानता है, अथवा यों कहो कि उसमें साधन
की रुचि जाग्रत होती है । साधन की रुचि जाग्रत होने पर सर्वप्रथम 'मैं' दृश्य नहीं हूँ, यह विचार
उदित होता है । उसका उदय होते ही 'मैं क्या हूँ?' यह समस्या सामने आती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 07-08)।