Tuesday, 19
August 2014
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
क्या है ?
'मैं'
और 'विश्व' एक है,
यह मान्यता भी साधनरूप मान्यता हो सकती है, साध्यरूप
नहीं; अर्थात् निर्णयात्मक नहीं । इस साधनरूप मान्यता से हमें
सीमित प्यार का अन्त करना है एवं देह के मोह से और उसकी तद्रूपता से रहित होना है ।
विश्व से एकता स्वीकार करते ही सामूहिक सुख-दुःख अपना सुख-दुःख हो जाता है,
जो हृदय में करुणा और प्रसन्नता प्रदान करने में समर्थ है । करुणा भोग-प्रवृत्ति
को और प्रसन्नता भोग-वासनाओं को खा लेती है; ऐसा होते ही समस्त
कामनाओं का अन्त हो जायेगा । कामनाओं का अन्त होते ही निर्दोषता आ जायेगी और गुणों
का अभिमान गल जायेगा, जिसके गलते ही परिच्छिन्नता तथा संकीर्णता
सदा के लिये मिट जायेगी। उसके मिटते ही अनन्त से अभिन्नता हो जायेगी । फिर सीमित प्यार
- जैसी कोई वस्तु नहीं रहेगी, अर्थात् सभी आसक्तियाँ मिटकर उस
अनन्त की प्रीति बन जायेंगी ।
प्रीति तथा आसक्ति में बड़ा अन्तर है । आसक्ति में जड़ता और प्रीति में
चिन्मयता होती है । आसक्ति मिट सकती है, पर प्रीति नित्य होती है । आसक्ति
का जन्म किसी अविवेकयुक्त प्रवृत्ति से तथा अभ्यास से होता है; परन्तु प्रीति अभ्यासजन्य नहीं है, स्वभाव है,
श्रमरहित है, जीवन है । यह अविवेकसिद्ध नहीं है,
अपितु विवेकसिद्ध है । आसक्ति की पूर्ति तथा निवृत्ति होती है;
परन्तु प्रीति की न पूर्ति होती है, न निवृत्ति
। आसक्ति घटती-बढ़ती तथा मिटती है; किन्तु प्रीति की उत्तरोत्तर
वृद्धि होती है । यह घटती या मिटती नहीं है । आसक्ति वस्तु, व्यक्ति, अवस्था आदि में सीमित रहती है; परन्तु प्रीति विभु होती
है । आसक्ति बन्धन उत्पन्न करती है और मृत्यु की ओर ले जाती है; परन्तु प्रीति स्वाधीन बनाती है और अमरत्व प्रदान करती है । आसक्ति एक में
अनेकता का दर्शन कराती है और प्रीति अनेकता को एकता में विलीन करती है; क्योंकि प्रीति की दृष्टि में प्रीतम से भिन्न कुछ नहीं रहता ।
इस दृष्टि से 'मैं' का अर्थ विश्व के साथ एकता
अथवा अनन्त से अभिन्नता अथवा अनन्त की प्रीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अथवा यों
कहो 'मैं' का अर्थ कुछ नहीं, या सब कुछ है, या केवल प्रीति ही है ।
(मानव
सेवा संघ, वृन्दावन के ग्रन्थ “जीवन दर्शन'' से साभार)
- “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 05-06)।