Monday 18 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 18 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
 “मैं” क्या है ?

अब यदि कोई कहे कि ज्ञान तो इन्दिय, बुद्धि आदि में भी है । तो कहना होगा कि इन्द्रियों का ज्ञान पूरा ज्ञान नहीं है, अल्प ज्ञान है और बुद्धि का ज्ञान भी अनन्त ज्ञान नहीं है, सीमित है । इन्द्रिय-ज्ञान से बुद्धि-ज्ञान भले ही विशेष हो; परन्तु अविवेक का अन्त होने पर जिस ज्ञान से अभिन्नता होती है, वह तो अनन्त और नित्य ज्ञान है, सीमित तथा परिवर्तनशील नहीं । अथवा यों कहो कि इन्द्रिय, मन, बुद्धि का ज्ञान उस अनन्त ज्ञान से ही प्रकाशित है, स्वतन्त्र नहीं है; परन्तु नित्यज्ञान स्वयंप्रकाश है, परप्रकाश्य नहीं ।

इन्द्रियों का ज्ञान विषयों में आसक्ति और बुद्धि का ज्ञान विषयों से अनासक्ति कराने में हेतु है । अथवा यों कहो कि बुद्धि के ज्ञान से निर्विकल्प स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा इन्द्रियों के ज्ञान से भोगों में आसक्ति ही उत्पन्न होती है, और कुछ नहीं; परन्तु नित्य ज्ञान से तो नित्य योग और अमरत्व की प्राप्ति भी होती है । हाँ, इन्द्रियों के ज्ञान का उपयोग स्वार्थ-भाव को त्यागकर विश्व की सेवा करने में है और बुद्धि के ज्ञान का उपयोग विषयों से विरक्त होने में है । इस दृष्टि से इन्द्रिय तथा बुद्धि के ज्ञान भी अपने-अपने स्थान पर आदरणीय हैं । परन्तु कब तक ? जब तक इन्द्रिय तथा बुद्धि के ज्ञान का दुरुपयोग नहीं होता । इन्द्रिय-ज्ञान का दुरुपयोग है, विषय-लोलुपता में और बुद्धि के ज्ञान का दुरुपयोग है, विवाद में, जिसका जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 04-05)