Sunday 17 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 17 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी, वि.सं.-२०७१, रविवार)

“मैं” क्या है

जीवन का अध्ययन करने पर मुख्य प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि 'मैं क्या हूँ’ ? यद्यपि हम सभी अपने को मानते हैं, क्या वही हमारा अस्तित्व है ? इस पर विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि प्रत्येक मान्यता का उद्गम स्थान 'यह' के साथ तद्रूप होने में है । ‘यह’ के अर्थ में शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी को लेना चाहिये । अत: यदि हम 'यह' से, अर्थात् शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से विमुख होकर अपना पता लगायें, तो अपने में किसी मान्यता का आरोप नहीं कर सकते । मान्यता को अस्वीकार करते ही सब प्रकार की चाह का अन्त हो जाता है । चाहरहित होते ही समस्त दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जिसके होते ही राग-द्वेष सदा के लिये मिट जाते हैं । राग का अन्त होते ही भोग 'योग ' में, मृत्यु 'अमरत्त्व' में और द्वेष का अन्त होते ही मोह 'प्रेम' में विलीन हो जाता है । फिर कर्त्ता, कर्म और फल - ये तीनों मिटकर उसी से अभिन्न हो जाते हैं, जो सभी का सब कुछ है ।

यही नहीं, शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से तद्रूप होने पर भी 'मैं' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु सिद्ध नहीं होती; क्योंकि शरीर आदि से तद्रूप होने पर तो विश्व का दर्शन होता है । अथवा यों कहो कि शरीर उसी विश्वरूपी सागर की एक बूँद जान पड़ता है, और कुछ नहीं । शरीर और विश्व का विभाजन सम्भव नहीं है । इस दृष्टि से यही सिद्ध होता है कि शरीर से तदरूपता होने पर भी 'मैं ' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । अपितु शरीर से तद्रूप होने पर 'मैं' का अर्थ समस्त विश्व हो जाता है । फिर व्यक्तिगत मान्यता के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता ।

क्या विश्व के साथ एकता होने वाली मान्यता हमारे जीवन में कुछ अर्थ रखती है ? यदि रखती है, तो कहना होगा कि जिस प्रकार हम समस्त विश्व से उपेक्षा भाव रखते हैं, उसी प्रकार हमें शरीर से भी उपेक्षा रखनी होगी । अथवा जिस प्रकार शरीर के प्रति आत्मीयता रखते हैं, उसी प्रकार समस्त विश्व के प्रति आत्मीयता करनी होगी । शरीर के प्रति उपेक्षा होने पर भी मोह -जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती और समस्त विश्व के प्रति आत्मीयता होने पर भी सीमित प्यार -जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रह सकती । मोह तथा सीमित प्यार का अन्त होते ही अविवेक तथा सब प्रकार के राग का अन्त स्वत: हो जाता है । अविवेक का अन्त होते ही नित्यज्ञान से अभिन्नता और राग का अन्त होते ही नित्ययोग की प्राप्ति स्वत: हो जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 03-04)