Sunday, 07
September 2014
(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का विवेचन
अपने में ब्रह्मभाव की स्थापना साधन-रूप है; किन्तु क्या ब्रह्म ने
ब्रह्मभाव की स्थापना की ? यह भ्रम है कि 'मैं' पहले ब्रह्म था, अब नहीं हूँ;
किन्तु जब मुझे किसी ने स्मरण दिलाया, तब मुझे
यह अनुभव हुआ कि 'मैं ब्रह्म हूँ' । तो
क्या ब्रह्म में ब्रह्म की विस्मृति हुई और फिर ब्रह्म ने ही मुझसे भिन्न होकर मुझे
ब्रह्म की स्मृति दिलाई ? यदि ब्रह्म का यह अपमान अभीष्ट है,
तब तो यह मानना उचित ही है कि मैं ब्रह्म हूँ, पर भूल से अपने को जीव मानता था । माया और अविद्या ने मुझे भुला दिया,
अर्थात् माया और अविद्या ब्रह्म से सबल हो गई । 'मैं' क्या हूँ ? इसका उत्तर आस्था
के आधार पर देना दर्शन नहीं है। दर्शन में आस्था अपेक्षित नहीं है । दर्शन का प्रादुर्भाव
सन्देह की वेदना से होता है । सन्देह की वेदना जिसमें होती है, वह मानव है और उसी में आसक्ति, जिज्ञासा तथा आस्था है
। आसक्ति प्रमाद-जनित है । इस कारण उसका नाश होता है और जिज्ञासा की पूर्ति विचार-सिद्ध
है, इस कारण उसकी पूर्ति होती है । सन्देह की वेदना को देख,
जिज्ञासा की पूर्ति के लिए विचार के स्वरूप में किसी की अहैतुकी कृपा
अवतरित होती है, जो अविचार का अन्त कर निस्सन्देहता प्रदान कर
स्वत: विलीन हो जाती है । निस्सन्देहता की प्राप्ति में ही दर्शन की पूर्णता है ।
निस्सन्देहता स्वत: प्रीति प्रदान करती है, जो वास्तविक जीवन है ।
सन्देह के रहते हुए प्रीति जाग्रत नहीं होती । सन्देह अपनी ही भूल से होता है । भूल
अविवेक सिद्ध है । अत: जाने हुए का अनादर करने से भूल उत्पन्न होती है । मानव-दर्शन
यह प्रेरणा देता है कि अपने पर अपने जाने हुए का प्रभाव अपना लेना अनिवार्य है । जाने
हुए का प्रभाव न तो प्रतीत होने वाले दृश्य में अहम्-बुद्धि को जन्म देता है और न स्वीकृतियों
में ही अहम्-बुद्धि होने देता है । जाने हुए का प्रभाव प्रतीति से असंग कर,
जो 'है' उससे अभिन्न करता
है । अभिन्नता में ही अगाध, अनन्त प्रियता है । प्रतीति की आसक्ति
जिसमें भासित है उसी में अगाध प्रियता की माँग है । आसक्ति के नाश में माँग की पूर्ति
स्वत: सिद्ध है । इस दृष्टि से अगाधप्रियता ही 'मैं' का वास्तविक स्वरूप है । प्रियता का क्रियात्मक रूप सेवा है और विवेकात्मक
रूप त्याग है, अर्थात् स्थान भेद से प्रीति ही सेवा, त्याग तथा प्रेम के रूप में है । सेवा जगत् के लिए, त्याग
अपने लिए एवं प्रेम अनन्त के लिए उपयोगी है । इस दृष्टि से मानव-दर्शन में ही मानव-जीवन
की पूर्णता निहित है ।
- “मैं” की खोज पुस्तक से,
(Page No. 21-22)।