Saturday, 13
September 2014
(आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)
अचाह
पद
सभी साधनों का पर्यवसान अचाह पद में है; कारण कि अचाह होने पर ही
अप्रयत्न और अप्रयत्न होने पर ही साध्य से अभिन्नता प्राप्त होती है, जो जीवन का मुख्य उद्देश्य है ।
अब विचार यह करना है कि चाह की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? रुचि और अरुचिरूपी भूमि
में चाहरूपी दूर्वा उत्पन्न होती है । यदि रुचि-अरुचि का समूह न रहे, तो चाह की उत्पत्ति के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता; कारण कि रुचि-अरुचि के, आधार पर ही सीमित अहंभाव सुरक्षित
रहता है । उसी से चाह की उत्पत्ति होती है । अत: सीमित अहं भाव के रहते हुए अचाह पद की प्राप्ति सम्भव नहीं है
।
सीमित अहं भाव का अन्त कैसे हो ? इसके लिए रुचि-अरुचि के स्वरूप
को जानना होगा । रुचि और अरुचि का सम्बन्ध 'स्व' और 'पर' से है । 'स्व' की विमुखता 'पर' की रुचि जाग्रत करती है और 'पर' की अरुचि 'स्व' की रुचि को सबल
बनाती है । 'पर' की अरुचि निषेधात्मकरूप
से 'स्व' में प्रतिष्ठित करती है और 'स्व' की रुचि विध्यात्मक रूप से 'पर' में अरुचि उत्पन्न करने में समर्थ है ।
अरुचि का अर्थ द्वेष नहीं है और रुचि का अर्थ राग नहीं है । 'पर' की अरुचि संयोग को संयोग-काल में ही वियोग में बदलती है और 'स्व' की रुचि वर्तमान में ही नित्ययोग प्रदान करती है
। अत: वियोग अथवा नित्य-योग रुचि-अरुचि के समूह को मिटाने में समर्थ है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) जीवन-दर्शन
भाग-1 पुस्तक से, (Page No. 17)।