Sunday, 6 July 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 06 July 2014 
(आषाढ़ शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

जिस प्रकार कोई भी औषधि बड़ी या छोटी, ऊँची या नीची तथा भली या बुरी नहीं होती, अपितु जिस रोग की जो औषधि है, वह उसी के लिए उपयुक्त होती है, उसी प्रकार साधक को रुचि, योग्यता, विश्वास तथा सामर्थ्य के अनुरूप साधना ही साधक को सिद्धि प्रदान करने में समर्थ है । कभी भी दो रोगी परस्पर में सघर्ष नहीं करते कि तुम हमारी औषधि खाओ, तभी नीरोग हो सकते हो; चाहे वे किसी एक ही चिकित्सक से चिकित्सा क्यों न करा रहे हों । यह सम्भव है कि दो रोगियों को समान रोग हो, पर यह कभी सम्भव नहीं है कि दो व्यक्ति सर्वांश में समान रुचि, योग्यता तथा सामर्थ्य के हों । हाँ, आंशिक एकता दो साधकों में हो सकती है और उद्देश्य की एकता सभी साधकों में हो सकती है । इसी कारण प्रीति तथा लक्ष्य की एकता और साधन की भिन्नता अनिवार्य है ।

यदि रोगी अपने चिकित्सक अथवा औषधि को प्रशंसा करता रहे; किन्तु न तो चिकित्सक की आज्ञा का पालन करे और न विधिवत औषधि का सेवन ही करे तथा कुपथ्य का त्याग और सुपथ्य को ग्रहण भी न करे, तो क्या वह नीरोग हो सकता है ? कदापि नहीं । उसी प्रकार जो साधक अपने साधन की, अपने आचार्य की, अपने नेता की तथा अपने पैगम्बर की प्रशंसा तो करे, पर साधन को अपना जीवन न बनाए, तो क्या उसे सिद्धि प्राप्त हो सकती है ? कदापि नहीं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 42)