Tuesday, 01
July 2014
(आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई
असमर्थ नहीं है
जिस प्रकार सोये हुए को जगाया जा सकता है, पर जो जगते हुए सो रहा
है, उसे कोई नहीं जगा सकता; उसी प्रकार
जो अपनी जानकारी का स्वयं आदर नहीं करता और प्राप्त बल का सदुपयोग नहीं करता,
उसकी कोई भी सहायता नहीं कर सकता । क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार
विवेक के अनादर से अविवेक की और बल के दुरुपयोग से निर्बलता की ही वृद्धि होती है ।
ज्यों-ज्यों प्राणी विवेक का अनादर तथा बल का दुरुपयोग करता जाता है, त्यों-त्यों विवेक में धुँधलापन और निर्बलता उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है ।
यहाँ तक कि एक दिन विवेक-युक्त जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है और प्राणी साधन करने के
योग्य नहीं रहता ।
साधक जो साधन कर सकते हैं, उसका न करना ही असाधन है । इसके
अतिरिक्त असाधन जैसी कोई वस्तु नहीं है । अब विचार यह करना है कि ऐसा क्यों होता है
? तो कहना होगा कि साधक ने निज-विवेक के प्रकाश में प्राप्त सामर्थ्य
का सदुपयोग करने का प्रयत्न नहीं किया । यह दोष साधक का अपना बनाया हुआ है,
प्राकृतिक नहीं । सभी साधकों का उद्देश्य एक हो सकता है, पर साधन एक नहीं हो सकता । सभी साधकों में प्रीति की एकता हो सकती है, पर कर्म की नहीं । हाँ, यह हो सकता है कि अपने साधन
का अनुसरण हो और अन्य के साधन का आदर हो ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 41-42)।