Monday, 07
July 2014
(आषाढ़ शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई
असमर्थ नहीं है
जो साधन साधक को
रुचिकर होता है और जिसके प्रति किसी प्रकार का संदेह नहीं रहता, वह साधक का जीवन बन जाता
है, जो सफलता का हेतु है । पर ऐसे साधन का निर्माण तभी हो सकता
है, जब साधक अपनी योग्यता तथा सामर्थ्य के अनुरूप साधन स्वीकार
करे । कोई भी साधक किसी भी परिस्थिति में यह नहीं कह सकता कि हम साधन नहीं कर सकते,
क्योंकि परिस्थिति के अनुरूप ही साधन का निर्माण होता है । अत: प्रत्येक
साधक को किसी-न-किसी साधना के सम्बन्ध में यह स्वीकार करना ही होगा कि हम कर सकते हैं
। यह नियम है कि साधक पूरी शक्ति लगाकर जो साधन कर सकता है, उसी
में सिद्धि निहित है । अत: साधक के जीवन में, साधन में असमर्थता और असफलता के लिए कोई
स्थान ही नहीं है ।
यदि कोई साधक साधन निर्माण करने में असमर्थता अनुभव करता हो, पर उसे साधन करने की रुचि
हो, तब भी साधन का निर्माण हो सकता है और सिद्धि मिल सकती है;
क्योंकि यह नियम है कि चाह की अपूर्ति में स्वभाव से ही वेदना जागृत
हो जाती है । जिस प्रकार तृषित प्राणी की जल की चाह न तो मिटाने से मिटती है,
न घटती है, अपितु उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है;
जब तक जल नहीं मिल जाता, तब तक किसी भी प्रकार से उसे चैन से
नहीं रहने देती; उसी प्रकार साधन करने की चाह साधक को उस समय
तक चैन से नहीं रहने देगी, जब तक साधन का निर्माण नहीं हो जाएगा
।
जैसे, कोई भी प्रलोभन तथा भय तृष्णावान की तृषा को, जब तक उसका
अस्तित्व है, मिटा नहीं सकता, अर्थात् जल
के मिलने पर ही उसकी तृषा शान्त होती है, उससे पूर्व नहीं;
उसी प्रकार साधन की तीव्र लालसा तब तक किसी प्रकार मिटती नहीं,
जब तक साधन-निर्माण तथा साधन-निष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती । इस दृष्टि
से भी यह सिद्ध होता है कि साधक साधन-निर्माण में और साधननिष्ठ होने में स्वाधीन है
।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 43-44)।