Monday, 09
June 2014
(ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व
साधन-तत्व ही गुरुतत्व है जो सर्वदा साधक में विद्यमान है । इस दृष्टि
से साधक, साधन और साध्य में जातीय एवं स्वरूप की एकता है; क्योंकि
तीनों एक ही धातु से निर्मित हैं; कारण, कि साधन-तत्व साध्य का साभाव और साधक का जीवन है । अत: साधक 'साधन' होकर साध्य से अभिन्न हो सकता है । साधक की साधन-तत्व
से अभिन्नता ही वास्तविक गुरु की प्राप्ति है, जो जीवन में एक
बार ही होती है और जिसके होते ही गुरु और शिष्य अभिन्न हो जाते हैं । यही वास्तविक
गुरु सेवा तथा गुरुभक्ति है ।
अब यदि कोई यह कहे कि जब साधन-तत्व साधक में विद्यमान है, तब साधक को प्रमाद क्यों
हो जाता है ? तो कहना होगा कि निज-ज्ञान के अनादर से । निज-ज्ञान
का अनादर होता है, बाह्य ज्ञान की आशा तथा विश्वास से । इन्द्रियजन्य
ज्ञान बुद्धिजन्य ज्ञान की अपेक्षा बाह्य है और बुद्धिजन्य ज्ञान निज-ज्ञान की अपेक्षा
बाह्य है । यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान का आदर तथा उस पर विश्वास न किया होता, तो किसी प्रकार के राग की उत्पत्ति ही नहीं हुई होती । यदि, राग की उत्पत्ति न होती, तो किसी दोष का जन्म ही नहीं
होता ।
यदि बुद्धि के ज्ञान से इन्द्रियों के ज्ञान पर अविश्वास कर लिया जाए, तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक
राग 'वैराग्य' में बदल सकता है;
क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान वस्तु में सत्यता तथा सुन्दरता का दर्शन
कराता है, जिससे कि वस्तुओं से राग की उत्पत्ति हो जाती है,
बुद्धि का ज्ञान उसी वस्तु में मलिनता तथा क्षण भंगुरता का दर्शन कराता
है, जो राग को 'वैराग्य' में परिवर्तित करने में समर्थ है । जब राग 'वैराग्य' में बदल जाता है, तब 'भोग' 'योग' में परिणत हो जाता है,
अथवा यों कहो कि इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती
हैं और मन नि:संकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है, जिसके
होते ही बुद्धि सम हो जाती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 30-31)।