Tuesday, 10
June 2014
(ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व
बुद्धि के सम होते ही निज-ज्ञान का प्रकाश बाह्य ज्ञान को अपने में विलीन
कर लेता है । फिर राग-विरागरहित अलौकिक दिव्य-जीवन से अभिन्नता हो जाती है । इस दृष्टि
से साधक बाह्य ज्ञान से विमुख होकर निज-ज्ञान का आदर करके सुगमतापूर्वक साधन होकर साध्य
से अभिन्न हो सकता है ।
साधन-तत्व साध्य से भी अधिक महत्व की वस्तु है, क्योंकि साध्य तो प्रमाद
का प्रकाशक है, नाशक नहीं; किन्तु साधन-तत्व
प्रमाद को खाकर साधक को साध्य से अभिन्न भी कर देता है; कारण,
कि सत् असत् का नाशक नहीं होता, अपितु प्रकाशक
होता है, किन्तु सत् की लालसा असत् को खाकर सत् से अभिन्न कर
देती है । इस दृष्टि से गुरु-तत्व साध्य-तत्व से भी अधिक महत्व की वस्तु है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 31-32)।