Wednesday,
11 June 2014
(ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व
यदि किसी कारणवश साधक अपने इन्द्रिय-ज्ञान
पर बुद्धि-ज्ञान द्वारा विजयी न हो सके तो ऐसी दशा में साधकों को परस्पर मिलकर साधन-निर्माण
के लिए विचार-विनिमय करना चाहिए । जिस प्रकार दो दीपक एक दूसरे के नीचे का अन्धकार
मिटाने में समर्थ हैं; उसी प्रकार पारस्परिक विचार-विनिमय द्वारा सुगमतापूर्वक साधन-निर्माण हो सकता
है । यह तभी सम्भव होगा, जब परस्पर में श्रद्धा, विश्वास तथा स्नेह की एकता हो और निस्संकोच होकर अपनी दशा एक दूसरे से कह सकें
। इसी का नाम 'बाह्य सत्संग' है ।
अब यदि कोई यह कहे कि हमें तो ऐसे साथी ही नहीं मिलते कि जिनके साथ विचार-विनिमय
कर सकें । ऐसी दशा में जिस किसी सद्ग्रन्थ पर अपना विश्वास हो, उसके प्रकाश में अपने दोष
देखें और निवारण के लिए साधन का निर्माण करें । यदि किसी सद्ग्रन्थ पर भी विश्वास न
हो, तो केवल साधन-निर्माण की तीव्र लालसा जागृत करें । ज्यों-ज्यों
लालसा सबल तथा स्थाई होती जाएगी, त्यों-त्यों साधन-निर्माण की
योग्यता अथवा अनुकूल परिस्थिति उस अनन्त की अहैतुकी कृपा से स्वत: प्राप्त होती जाएगी;
क्योंकि कर्तव्य-ज्ञान के लिए विवेक के स्वरूप में जिसने गुरु प्रदान
किया है, वही सत्संग एवं सद्ग्रन्थ के स्वरूप में भी गुरु प्रदान
कर सकता है ।
गुरु की प्राप्ति में एकमात्र गुरु की आवश्यकता ही हेतु है । अत: गुरु
की आवश्यकता गुरु से मिला देती है, यह निर्विवाद सत्य है । इस दृष्टि
से प्रत्येक साधक, साधन-निर्माण करके उस साध्य से अभिन्न होने
में सर्वदा स्वतन्त्र है, जो वास्तविक जीवन है ।
- ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 32-33)।