Sunday, 08
June 2014
(ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७१, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व
यह नियम है कि जब प्राणी अपनी दृष्टि में अपने को आदर के योग्य नहीं पाता
अर्थात् दोषी पाता है, तब उसमें एक गहरी वेदना जागृत् होती है, जो दोषों को
मिटाने में समर्थ है; कारण, कि दोषों से
रस लेने से ही दोष सुरक्षित रहते हैं । जब दोषों से वेदना उत्पन्न होने लगती है,
तब वे स्वत: मिट जाते हैं, अथवा यों कहो कि साधक
में दोष मिटाने की सामर्थ्य आ जाती है ।
इस दृष्टि से अपने दोषों का ज्ञान और उनके होने की वेदना ही निर्दोष होने
के साधन हैं । हाँ, यह अवश्य है कि अपने ज्ञान से जो अपना गुण देखेगा, वह
साधन-निर्माण नहीं कर सकेगा; क्योंकि गुण देखने से गुणों का अभिमान
होगा, जो सभी दोषों का मूल है । अत: प्राप्त गुरु का आदर वही
कर सकता है, जो अपना गुण नहीं देखता, अपितु
दोष देखता है ।
दोष का ज्ञान जिससे होता है, उस ज्ञान का कभी नाश नहीं होता
। केवल प्रमादवश साधक प्राप्त ज्ञान का अनादर करने लगता है । ज्ञान का अनादर ज्ञान
का अभाव नहीं है, अपितु अल्प ज्ञान है, जो सभी दोषों का मूल है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 30)।