Saturday, 7 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 07 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन-तत्व

अपने प्राप्त विवेक के आधार पर यदि साधन निर्माण करना है, तो सर्वप्रथम अपने प्राप्त ज्ञान से अपने दोषों को जानना होगा । जिस ज्ञान से दोषों का ज्ञान होगा, उसी ज्ञान में दोषों के कारण का ज्ञान भी विद्यमान है और उस कारण के निवारण का भी । अपने दोषों को जान लेने में कभी धोखा नहीं हो सकता, अपितु अपने दोषों का ज्ञान जितना अपने को होता है, उतना अन्य को हो ही नहीं सकता; कारण, कि दूसरों के सामने तो हम इन्द्रियों के द्वारा ही दोषों का वर्णन करेंगे । मन में जितनी सामर्थ्य है, उतनी इन्द्रियों में नहीं और बुद्धि में जितनी सामर्थ्य है, उतनी मन में नहीं । अत: बुद्धि की सारी बातें मन में नहीं आ पातीं और मन की सारी बातें इन्द्रियों में नहीं आ पातीं । इसलिए इन्द्रियों के द्वारा प्रकाशित किया जाने वाला दोष पूरा दोष नहीं हो सकता । जब तक दोष का पूरा ज्ञान न हो, तब तक कारण का ज्ञान और उसके निवारण का ज्ञान सम्भव नहीं है । अत: दोष देखने और निवारण करने के लिए साधक को अपने ही ज्ञान को अपना गुरु बना लेना चाहिए ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 29)