Friday, 6 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 06 June 2014 
(ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

साधन-तत्व

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि कर्तव्य का ज्ञान प्रत्येक कर्ता में निहित है, अर्थात् साधन-तत्व साधक में विद्यमान है । जब साधक अपने में विद्यमान साधन-तत्व का आदर नहीं करता, तब उसे बाहर से साधन-निर्माण की अपेक्षा होती है । यद्यपि साधन-तत्व ही गुरु-तत्व है, जो साधक में जन्मसिद्ध है, तथापि इस प्राप्त गुरु-तत्व का अनादर करने के कारण किसी अप्राप्त गुरु की अपेक्षा हो जाती है । इसका अर्थ किसी बाह्य गुरु का अनादर नहीं है; अपितु विद्यमान गुरु का अनादर न किया जाए, उसी के लिए यह कहना है कि प्रपने प्राप्त गुरु का आदर करो ।

जो साधक प्राप्त गुरु का आदर करता है, वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक साधन-तत्व से अभिन्न होकर साध्य-तत्व को प्राप्त कर लेता है; क्योंकि अपने प्रति जितनी प्रियता होती है, उससे अधिक किसी अन्य के प्रति नहीं होती और अपनी अनुभूति के प्रति जितना सद्भाव तथा निस्संदेहता होती है, उतनी अन्य के प्रति नहीं होती । इस दृष्टि से अपनी अनुभूति के आधार पर जितनी सुगमतापूर्वक साधन-निर्माण तथा साधन-परायणता हो सकती है, उतनी किसी अन्य की अनुभूति द्वारा नहीं ।

इतना ही नहीं, जिस साधन के समझने की तथा करने की सामर्थ्य साधक में बीज-रूप से विद्यमान नहीं होती, वह साधन कोई भी किसी भी साधक को न तो समझा सकता है और न उससे करा ही सकता है । जिस प्रकार नेत्र को कोई शब्द नहीं सुना सकता और श्रोत्र को कोई रूप नहीं दिखा सकता, उसी प्रकार जिस साधन की सामर्थ्य साधक में नहीं है, उसको कोई बाह्य गुरु नहीं करा सकता । जिस बीज में उपजने की सामर्थ्य होती है, उसी को पृथ्वी, जल, वायु आदि उपजा सकते हैं । अत: साधक में विद्यमान साधना को ही बाह्य गुरु भी विकसित करने में सहयोग दे सकते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 28-29)