Wednesday,
28 May 2014
(ज्येष्ठ कृष्ण अमावश्या, वि.सं.-२०७१, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य
का विवेचन
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन उस अनन्त जीवन का एक अंशमात्र है । प्रत्येक
अंश उससे अभिन्न हो सकता है, जिसका वह अंश है; पर उसके सम्बन्ध
में कोई निर्णय नहीं दे सकता । जिस सीमित परिवर्तनशील योग्यता से हम निर्णय देते हैं,
वह योग्यता क्या हमारी अपनी वस्तु है ? यदि हमारी
वस्तु है, तो उसमें, परिवतन क्यों है ?
और उसका विनाश क्यों है ? यदि हमारी नहीं है,
तो क्या हमें जिससे मिली है, उसकी और गतिशील होने
का कभी प्रयत्न किया ? यदि नहीं किया, तो हमें किसी प्रकार के
निर्णय करने का क्या अधिकार है ? व्यक्ति मिली हुई योग्यता का
सदुपयोग ही कर सकता है; किसी प्रकार का अनर्गल निर्णय देकर खीझना
व्यर्थ है ।
दुःख उतनी बुरी वस्तु नहीं, जितना हम मान लेते हैं । दुःख के
आधार पर ही हम आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं । जिस प्रकार भूख ही भोजन-प्राप्ति में
हेतु है, उसी प्रकार दुःख तथा मृत्यु ही अमरत्व तथा आनन्द की
प्राप्ति में हेतु है । पर ऐसा तभी हो सकता है, जब हम दुःख होने
पर विचार करें, भयभीत न हों । दुःख हमारे बिना ही बुलाए आया है,
हम उसे रोक नहीं सकते । जिसे रोक नहीं सकते और जो अपने-आप आता है,
वह किसी ऐसे की देन है जो अनन्त है ।
उस अनन्त की देन में सभी का हित विद्यमान है । उससे भयभीत होना हमारी
अपनी भूल है । जिस काल में दुःख पूर्ण जागृत होता है, उसी काल में सब प्रकार
की आसक्तियाँ अपने-आप मिट जाती हैं, जिनके मिटते ही हम उस अनन्त
की महिमा देखने के अधिकारी हो जाते हैं । अथवा यों कहो कि उसकी महिमा का आश्रय लेकर
ही उससे नित्य-सम्बन्ध स्वीकार कर लेते हैं । अत: जो कुछ हो रहा है, वह हमें 'नहीं’ से 'है'
की ओर गतिशील करने में समर्थ है । 'नहीं'
का अर्थ अभाव है और 'है' का अर्थ अभाव-का-अभाव । इस दृष्टि से प्रत्येक 'अभाव',
अभाव-का-अभाव करने में समर्थ है और प्रत्येक रचना उस अनन्त की लालसा
जागृत करने में हेतु है । अत: जो हो रहा है; उसमें सब कुछ मिल
सकता है ।
- ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 26-27)।