Tuesday 27 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 27 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

अब यदि कोई यह कहे कि वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमारे जीवन में काम की उत्पत्ति होती है और दुख-मृत्यु आदि को देखकर भय उत्पन्न होता है । तो कहना होगा कि हमारे देखने में दोष है । हम सीमित सौन्दर्य देखकर ही उसमें आबद्ध हो जाते हैं और उसका भोग करने लगते हैं, अनन्त और नित्य सौन्दर्य की लालसा को सबल नहीं होते देते । प्रत्येक भोग के परिणाम में भयंकर रोग उत्पन्न होता है, जो जिज्ञासा जागृत करने में हेतु है । पर हम जिज्ञासु न होकर उस रोग-शोक आदि को देखकर खीझने लगते हैं और मनमाना कोई-न-कोई निर्णय कर बैठते हैं कि उस अनन्त की रचना में इतना दुख क्यों है !

इतना ही नहीं, कभी-कभी तो यहाँ तक कहने लगते हैं कि सृष्टि का कोई कर्ता नहीं है, घटनाएँ अकस्मात् हो रही हैं, मृत्यु-ही-मृत्यु है, जीवन-जैसी कोई वस्तु है ही नहीं; जहाँ तक सुख सम्पादित कर सकें, करते रहें । यद्यपि सुख-सम्पादन के परिणाम में दुःख-ही-दुख भोगते रहते हैं और खीझते रहते हैं; परन्तु न तो घटनाओं के अर्थों पर विचार करते हैं, न उस कर्ता की कारीगरी को देखते हैं और न अपने को उसका जिज्ञासु अथवा भक्त ही मानते हैं । अपितु भोगी तथा रोगी बनकर ही जीवित रहते हैं । दुःख तथा मृत्यु के दर्शन से तो हमारे जीवन में अमरत्व तथा आनन्द की लालसा जागृत होनी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं होता । उसका कारण यह है कि हम मनमाना निर्णय कर लेते हैं, जो हमारा अपना ही दोष है । हमारा निर्णय ऐसा ही होता है, जैसे कोई जल-कण सागर के विषय में मनमाना निर्णय कर ले ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 25-26)