Monday 26 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 26 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

अनन्त की लीला भी अनन्त ही है और उसका दर्शन भी अनन्त है । लीला का बाह्य स्वरूप भले ही सीमित तथा परिवर्तनशील हो, पर उसके मूल में तो अनन्त नित्य चिन्मय तत्व ही विद्यमान है । उनकी अनुपम लीला का दर्शन उनकी चिन्मय दिव्य प्रीति जागृत करने में समर्थ है ।

अत: जो हो रहा है, उसका प्रभाव प्रेमी बनाकर प्रेमास्पद से अभिन्न करने में हेतु है । अब रहा वस्तु आदि में परिवर्तन के दर्शन का प्रभाव; परिवर्तन का दर्शन होते ही स्वभावत: अविनाशी की जिज्ञासा जागृत होती है । ज्यों-ज्यों जिज्ञासा सबल तथा स्थाई होती जाती है, त्यो-त्यों, कामनाएँ स्वत: मिटने लगती हैं । कामनाओं का अन्त होते ही जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासा की पूर्ति में ही अमर जीवन निहित है ।

जो हो रहा है, उससे तो हमें प्रेम तथा जीवन की ही उपलब्धि होती है । इस दृष्टि से जो हो रहा है, उसमें सभी का हित विद्यमान है । अत: 'होनें' मैं प्रसन्न तथा 'करने' में सावधान रहने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 24-25)