Sunday, 25
May 2014
(ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य
का विवेचन
यह तो सभी को मान्य होगा कि कर्तृत्वकाल में भोग हो सकता है, देखना नहीं; क्योंकि जब हम कुछ करते हैं, तब देखते नहीं और जब देखते
हैं, तब करते नहीं । इस दृष्टि से विषयों के उपभोगकाल में विषयों
को देख नहीं पाते और जब विषयों को देखते हैं, तब उनका उपभोग नहीं
कर सकते । अत: देखना तभी सम्भव हो सकता है, जब उपभोगकाल न हो
। भोग-प्रवृत्ति भोग का देखना नहीं, अपितु भोग के आरम्भ का सुख
और परिणाम का दुःख भोगना है । सुख-दुःख का भोग करते हुए हम जो स्वत: हो रहा है,
उसे यथार्थ देख नहीं सकते । अत: जो हो रहा है, उसको देखने के हमें रागरहित दृष्टि की अपेक्षा है, जो
विवेकसिद्ध है ।
जो हो रहा है, उसके दो रूप दिखाई देते हैं - एक तो सीमित सौन्दर्य और दूसरा प्रत्येक वस्तु
आदि का सतत परिवर्तन । वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमें उस अनन्त सौन्दर्य की महिमा
का अनुभव स्वत: होने लगता है । जिस प्रकार किसी सुन्दर वाटिका को देखकर वाटिका के माली
की स्मृति स्वत: जागृत होती है, उसी प्रकार प्रत्येक रचना को
देखकर संसाररूपी वाटिका के माली की स्मृति जागृत होती है; क्योंकि
किसी की रचना का दर्शन रचयिता की महिमा को प्रकाशित करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक
वस्तु हमें उस अनन्त की और ले जाने में हेतु बन जाती है और हम उसकी रचना देख-देखकर
नित-नव प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं । यहाँ तक कि प्रत्येक रचना में उस कलाकार
का ही दर्शन होने लगता है । ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यह सब उस अनन्त की लीला ही
है, और कुछ नहीं ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 23-24)।