Friday, 23 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 23 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

इन्द्रियों की दृष्टि से समस्त विषय सुखद तथा सत्य प्रतीत होते हैं। जब तक इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव मन पर रहता है, तब तक मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की ओर गतिशील रहता है और जब मन पर बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होने लगता है, तब इन्द्रियों का प्रभाव मिटने लगता है; क्योंकि जो वस्तु इन्द्रिय-दृष्टि से सत्य और सुन्दर मालूम होती है, वही वस्तु बुद्धि-दृष्टि से असत्य और असुन्दर मालूम होती है । बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होते ही मन विषयों से विमुख हो जाता है । उसके विमुख होते ही इन्द्रियाँ स्वत: विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । उसके विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाता है । फिर उस समता का जो दृष्टा है, वह किसी मान्यता में आबद्ध नहीं हो सकता । उस दृष्टा की दृष्टि में सृष्टि-जैसी कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि समस्त सृष्टि तो बुद्धि के सम होते ही विलीन हो जाती है; केवल समता रह जाती है । उस समता का प्रकाशक जो नित्य-ज्ञान है, उसमें सृष्टि-जैसी कोई वस्तु ही नहीं प्रतीत होती अथवा यों कहो कि उस ज्ञान से अभिन्न होने पर सब प्रकार के प्रभावों का अभाव हो जाता है; अर्थात् कामनाओं की निवृत्ति तथा जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है, जो वास्तव में जीवन है ।

इन्द्रिय-दृष्टि की सत्यता का प्रभाव राग उत्पन्न करता है और राग भोग में प्रवृत्त करता है; किन्तु बुद्धि-दृष्टि की सत्यता राग को वैराग्य में और भोग को योग में परिवर्तित करने में समर्थ है । जब राग वैराग्य में और भोग योग में बदल जाता है, तब दृष्टा में मान्यताओं से अतीत होकर देखने की योग्यता आ जाती है । उससे पूर्व हम जो कुछ देखते हैं, वह किसी-न-किसी मान्यता में आबद्ध होकर ही देखते हैं, अर्थात् उस समय हमारी दृष्टि सीमित रहती है, दूरदर्शिनी नहीं रहती । इस कारण जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही नहीं जान पाते । अत: हम अनेक प्रकार के प्रभावों में आबद्ध रहते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 22-23)