Thursday 22 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 22 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

यह सभी को मान्य होगा कि जो देख रहा है, वह स्वयं नहीं कर रहा है, अर्थात् कर्ता और दृष्टा एक नहीं होते । हाँ, यह अवश्य जानना है कि जो देख रहा है, उस पर देखने का प्रभाव क्या है ? देखने वाला अपने को कुछ मानकर देख रहा है अथवा सभी मान्यताओं से रहित होकर देख रहा है ? अब विचार यह करना है कि मान्यताओं में आबद्ध होकर देखना क्या है और सभी मान्यताओं से रहित होकर देखना क्या है ? तो कहना होगा कि अपने को इन्द्रियाँ मानकर हम विषयों को देखते हैं, अपने को मन मानकर इन्द्रियों को देखते हैं, बुद्धि होकर मन को देखते हैं और इन सब के अभिमानी होकर बुद्धि को देखते हैं तथा सभी मान्यताओं से रहित होकर उस अभिमानी को देखते हैं, जो सीमित है ।

जब हम अपने को कुछ मानकर देखते हैं, तब देखे हुए में हमारी आसक्ति हो जाती है अथवा अरुचि । अरुचि और आसक्ति के कारण हम उस देखे हुए में बँध जाते हैं । फिर जो कुछ देखने में आता है, उसकी वास्तविकता हम नहीं जान पाते । पर जब विवेक दृष्टि से देखते हैं, तब जो कुछ हमें दिखाई देता है, वह सब या तो अनित्य प्रतीत होता है अथवा केवल अभाव-ही-अभाव या दुख-ही-दु:ख ।

इन्द्रियाँ विषयों की दृष्टा हैं, मन इन्द्रियों का दृष्टा है, बुद्धि मन की दृष्टा है और अभिमानी बुद्धि का भी दृष्टा है । जब तक हम उसे ही दृष्टा मान लेते हैं, जो दृश्य है, तब तक जो सर्व का दृष्टा है, उसको अथवा यों कहो कि जो सभी मान्यताओं से अतीत दृष्टा है, उसको नहीं जान पाते ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 21-22)