Wednesday,
21 May 2014
(ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७१, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य
का विवेचन
यदि हमारे द्वारा होने वाले कर्मों से दूसरों का अहित हो रहा है, तो हमारा भी अहित निश्चित
है; क्योंकि दूसरों के प्रति जो कुछ किया जाता है, वह कई गुना अधिक होकर हमारे प्रति स्वत: होने लगता है । अत: इस कर्म-विज्ञान
की दृष्टि से हमें वह नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी अन्य का अहित
हो, अपितु वह अवश्य करना चाहिए, जिसमें
सभी का हित हो ।
अब यदि कोई यह पूछे कि हम यह कैसे जानें कि किसमें दूसरे का अहित है? तो इसका निर्णय करने के
लिए हमें एक ही बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम जो कुछ दूसरों के प्रति कर रहे हैं,
क्या वही दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये जाने की आशा करते हैं ?
दूसरों के द्वारा अपने प्रति हम वही आशा करते हैं, जो करने के योग्य है; क्योंकि हम अपने प्रति दूसरों
से न्याय, प्रेम, उदारता, आदर, करुणा एवं क्षमा आदि व्यवहार की ही आशा रखते हैं
। जो अपने प्रति चाहते हैं, वही हमें दूसरों के प्रति करना है
। ऐसा करने से 'करना', 'होने' में विलीन हो जाता है । फिर हम, जो हो रहा है,
उसे देखने लगते हैं ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 20-21)।