Saturday, 17 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 17 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

वस्तुस्थिति पर विचार करने से ये दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं - प्रथम यह कि क्या हम वही कर रहे हैं, जो हमें करना चाहिए अथवा वह भी करते हैं, जो नहीं करना चाहिए ? और दूसरा यह कि जो स्वत: हो रहा है उसका हम पर क्या प्रभाव है ? अब विचार यह करना है कि हम जो कुछ करते हैं, उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है ? तो कहना होगा कि कुछ कार्य तो हम ऐसे करते हैं, जिनका कारण अपने को देह मान लेना है और कुछ कार्य ऐसे होते हैं कि जिनका सम्बन्ध बाह्य सम्पर्क से है, अथवा यों कहो कि करने का उदय हमारी मान्यता में तथा हमारे सम्बन्धों में निहित है ।

हाँ, एक बात और है, कुछ क्रियाएँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें हम देहजनित कह सकते हैं । वे क्रियाएँ कर्म नहीं, प्रत्युत देह का स्वभाव हैं । देह के स्वभाव से अतीत की ओर जाने के लिए कर्तव्य का विधान बना है, क्योंकि यदि ऐसा न होता, तो विवेक की कोई अपेक्षा ही न होती । विवेकयुक्त जीवन में ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है ? विवेक-रहित जीवन में तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । जहाँ यह प्रश्न ही नहीं है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, उस जीवन में तो केवल स्वत: आने वाले सुख-दुःख का भोग है, सदुपयोग अथवा दुरुपयोग नहीं ।

इस दृष्टि से अब हमें अपने द्वारा होने वाली सभी चेष्टाओं को निज-विवेक के प्रकाश में देखना है कि क्या हम वही करते हैं, जो करने योग्य है, अथवा निज-ज्ञान का अनादर करके वह भी कर बैठते हैं, जो नहीं करना चाहिए ! जो नहीं करना चाहिए, उसको करने से अपना तथा दूसरों का अहित ही होता है ।

कर्तृत्व के स्थल पर एक बात और विचारणीय है, वह यह कि हम जो कुछ करते हैं, उसका परिणाम हमीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु समस्त विश्व में फैलता है; क्योंकि कर्म बिना संगठन के नहीं होता । अत: संगठन से उत्पन्न होने वाले कर्म का परिणाम व्यापक होना स्वाभाविक है । इस दृष्टि से हम जो कुछ करें, वह इस उद्देश्य को सामने रखकर करना चाहिए कि हमारे द्वारा दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 19-20)