Friday, 16 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 16 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
पराश्रय का त्याग और सेवा

यह भलीभाँति जान लेना चाहिए कि सेवा का अन्त भोग में नहीं, अपितु त्याग में है और त्याग का अन्त है, केवल शान्ति और प्रेम में । यह नियम है कि जिन साधनों से हम सेवा करते हैं, उनकी ममता मिट जाती है और जिनकी हम सेवा करते हैं, उनमें सौन्दर्य आ जाता है । ममतारहित होने से स्वाधीनता प्राप्त होती है और हमारे तथा सभी व्यक्तियों के निर्माण से सुन्दर समाज का निर्माण स्वत: हो जाता है ।

इस दृष्टि से 'पर' की सेवा में अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण निहित है । एवं 'पर' के आश्रय में अपना और समाज का भी अहित है; क्योंकि जिससे हम ममता कर लेते हैं, वह वस्तु और व्यक्ति दोनों ही विनाश को प्राप्त होते हैं । वस्तु की ममता हमें लोभी बनाकर संग्रह की इच्छा उत्पन्न कर देती है एवं व्यक्तियों की ममता हमें तो मोही बनाती है और उन्हें पराश्रित कर देती है, जिनमें हमारा मोह होता है । लोभ की बुद्धि ने ही वस्तुओं का अभाव और मोह की बुद्धि ने ही परस्पर में संघर्ष उत्पन्न कर दिया है, जो विनाश का मूल है ।

वस्तुओं का उपयोग व्यक्तियों की सेवा में और व्यक्तियों की सेवा व्यक्तियों को विवेकयुक्त बनाने में निहित है; क्योंकि विवेकयुक्त जीवन में ही अपना कल्याण तथा सबका हित विद्यमान है ।

पराश्रय मृत्यु की ओर एवं उसका त्याग अमरत्व की ओर ले जाता है । पराश्रय जड़ता में आबद्ध करता है और उसका त्याग चिन्मय जीवन से अभिन्न कर देता है तथा लोभ और मोह का अन्त कर निर्लोभता, निर्मोहता एवं प्रेम प्रदान करता है । निर्लोभता से दरिद्रता और निर्मोहता से अविवेक मिट जाता है तथा प्रेम से अगाध, अनन्त रस की उपलब्धि होती है, जो वास्तविक जीवन है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 17-18)