Thursday, 15 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 15 May 2014 
(ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
पराश्रय का त्याग और सेवा

अब विचार यह करना है कि 'पर' का अर्थ क्या है ? तो कहना होगा कि जिसका वियोग अनिवार्य हो, वही 'पर’ है । इस दृष्टि से किसी अन्य की तो बात ही क्या है, शरीर भी 'पर' के ही अर्थ में आता है । अत: सर्व प्रथम हमें शरीर की सेवा करनी है । यह तभी सम्भव होगा, जब हम शरीर के अभिमान का त्याग करें । शरीर के अभिमान का त्याग करते ही निर्वासना आ जाएगी । वासनाओं का अन्त होते ही इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी शुद्ध हो जाएँगे । फिर समस्त विश्व की सेवा स्वत: होने लगेगी; क्योंकि सेवा उन्हीं साधनों से की जा सकती है, जिनमें शुद्धता हो । इन्द्रियों की शुद्धता से सदाचार की प्राप्ति और समाज के चरित्र का निर्माण होगा । मन की शुद्धता से अशुद्ध संकल्प मिट जाएँगे और निर्विकल्पता आ जाएगी ।

निर्विकल्पता आते ही मन विभु हो जाएगा, जिससे समस्त विश्व की मूक सेवा होने लगेगी । बुद्धि की शुद्धता विषमता का विनाश कर देगी, जिससे भिन्नता मिट जाएगी और एकता आ जाएगी, जो चिर-शान्ति की स्थापना करने में समर्थ है और जिसमें सब प्रकार: के विकास की सामर्थ्य निहित है । इस दृष्टि से शरीर की सेवा में ही समस्त विश्व की सेवा विद्यमान है ।

सेवा वही कर सकता है, जो किसी का बुरा न चाहे । जो किसी का बुरा नहीं चाहता, वह अपने से दुखियों को देखकर करुणा से द्रवित और सुखियों को देखकर प्रसन्न होने लगता है, अथवा यों कहो कि करुणा और प्रसन्नता उसका स्वभाव बन जाता है । करुणा सुख-भोग की आसक्ति को और प्रसन्नता सुख-भोग की कामना को खा लेती है । कामना और आसक्ति के मिटते ही बाह्य-सेवा भी स्वत: होने लगती है, अर्थात् न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और सम्पादित सामर्थ्य तथा योग्यता से रोगी, बालक, विरक्त, जो सत्य के अन्वेषण में लगे हैं, की सेवा स्वाभाविक होने लगती है क्योंकि ये तीनों ही सेवा के पात्र हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 16-17)