Wednesday, 14 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 14 May 2014 
(वैशाख बुद्ध पूर्णिमा, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

पराश्रय का त्याग और सेवा

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि सब प्रकार के अभाव का कारण एकमात्र पराश्रय है; क्योंकि 'पर' का आश्रय ही हमें जड़ता में आबद्ध करता है, सीमित बनाता है और अनेक प्रकार की आसक्तियों को जन्म देता है । इस दृष्टि से पराश्रय का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

आसक्तियों के रहते हुए प्रीति का उदय नहीं होता । प्रीति के बिना नित-नव रस की उपलब्धि नहीं होती, अपितु चित्त में खिन्नता ही निवास करती है, जो हमें क्रोधी बनाकर कर्तव्य से च्युत कर देती है । अत: किसी भी आसक्ति का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

सीमित होते ही कामनाओं का उदय होता है, जो स्वाधीनता का अपहरण करने में हेतु है । स्वाधीनता का अपहरण होते ही हम जड़ता में आबद्ध होकर दिव्य चिन्मय जीवन से विमुख हो जाते हैं । अत: पराश्रय का अन्त करने के लिए हमें वर्तमान में ही प्रयत्नशील होना चाहिए ।

पराश्रय का अन्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम पर-आश्रय के भाव को पर-सेवा की सद्भावना में परिवर्तित करना होगा; क्योंकि जिसकी सेवा करने का सुअवसर मिल जाता है, उसकी आसक्ति मिट जाती है और जिसमें आसक्ति नहीं रहती, उससे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अत: पर-सेवा की सद्भावना हमें 'पर' के आश्रय से मुक्त करने में समर्थ है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 15-16)