Tuesday, 13 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 13 May 2014 
(वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
निष्कामता में ही सफलता है

प्राप्त वस्तु, बल और विवेक किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति नहीं है, अपितु किसी की देन है । अब यदि कोई यह कहे कि हमें जो कुछ मिला है, वह हमारे ही कर्म का फल है । तो कहना होगा कि कर्म करने की सामर्थ्य क्या आपकी अपनी है ? यदि आपकी अपनी है तो आप किसी प्रकार का अभाव क्यों अनुभव करते हैं और प्रवृत्ति के अन्त में शक्तिहीन क्यों होते हैं ? शक्तिहीनता की अनुभूति यह सिद्ध करती है कि सामर्थ्य किसी व्यक्ति की अपनी नहीं है । वह उसी की देन है, जिसके प्रकाश से समस्त विश्व प्रकाशित है । उसकी दी हुई सामर्थ्य को अपनी मान लेना कहाँ तक न्याय संगत है ?

हाँ, यह अवश्य है कि जिसने हमें सब कुछ दिया है, उसने अपने को गुप्त रखा है, अर्थात् 'मैं देता हूँ', यह प्रकाशित नहीं किया । इतना ही नहीं, उसने अपने को इतना छिपाया है कि जिसे देता है, उसे वह मिली हुई वस्तु अपनी ही मालूम होती है, किसी और की नहीं । भला, जिसमें इतनी आत्मीयता है इतना सौहार्द है, क्या हमने कभी एक बार भी वस्तुओं से विमुख होकर उसकी ओर देखा ?

जिसकी ओर हम एक बार भी नहीं देख सके, वह सर्वदा हमारी ओर देखता है । यदि ऐसा न होता, तो असमर्थ होने पर बिना ही यत्न के सामर्थ्य कैसे मिलती ? इस दृष्टि से हमें निष्काम होकर मिली हुई सामर्थ्य का प्राप्त विवेक के प्रकाश में उसी के नाते उपयोग करना है और उसी अनन्त की ओर देखना है, जो हमारी ओर सदैव देखता है । उसकी और देखते ही हम उसके हो जाएँगे, जिसके होते ही सब प्रकार के अभाव का अभाव हो जाएगा और दिव्य चिन्मय जीवन प्राप्त होगा, जो हमारी वास्तविक आवश्यकता है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 13-14)