Monday, 12
May 2014
(वैशाख शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
निष्कामता में ही
सफलता है
अब यदि कोई यह कहे कि वस्तुओं के बिना तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह सकता
। तो कहना होगा कि जो अस्तित्व वस्तुओं के आश्रित है, वह क्या हमारा अस्तित्व
है ? कदापि नहीं । इस दृष्टि से तो वस्तुओं का ही अस्तित्व सिद्ध
होगा, हमारा नहीं । हमारा अस्तित्व तो तभी सिद्ध हो सकता है,
जब हम वस्तुओं से अतीत के उस जीवन को प्राप्त कर लें, जो निष्कामता से ही प्राप्त हो सकता है । निष्कामता हमें प्राप्त वस्तुओं के
सदुपयोग और अप्राप्त वस्तुओं की कामना के त्याग
का पाठ पढ़ाती है, न तो वस्तुओं के संग्रह की प्रेरणा देती है
और न अप्राप्त वस्तुओं के आह्वान की ही ।
वस्तुओं
का संग्रही तथा वस्तुओं का आह्वान करने वाला निष्काम नहीं हो सकता । निष्कामता आ जाने
पर प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग होने लगता है और आवश्यक वस्तुएँ प्रकृति के विधान से
स्वत: मिलने लगती हैं । परन्तु कब ? जब न तो वस्तुओं के अभाव से हम
क्षुब्ध हों, न प्राप्त वस्तुओं में हमारी ममता हो, न उनका दुरुपयोग हो और न वस्तुओं के आधार पर हम अपना अस्तित्व ही मानें ।
जिस प्रकार सूर्य के सम्मुख होते ही छाया हमारे पीछे दौड़ती है और सूर्य
से विमुख होने पर हम छाया के पीछे दौडते हैं, पर उसे पकड़ नहीं पाते; उसी प्रकार निष्कामता-रूपी सूर्य के सम्मुख होते ही छायारूपी वस्तुएँ हमारे
पीछे दौड़ती हैं और विमुख होते ही हम छायारूपी वस्तुओं के पीछे दौड़ते हैं, पर उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 12-13)।