Sunday 29 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 29 June 2014 
(आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

अब यदि कोई यह कहे कि योगी विवेकी और प्रेमी होने के लिए तो जीते-जी मरने की बात है, पर समाज-सेवा के लिए तो जीवन में मृत्यु का अनुभव आवश्यक नहीं है । तो  कहना होगा कि वास्तविक सेवा के लिए भी जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करना होगा, क्योंकि सेवा त्याग की भूमि तथा प्रेम की जननी है । सेवा वही कर सकेगा, जो अपने सेव्य के मन की बात पूरी कर सके और उसके बदले में किसी प्रकार की आशा न करे । दूसरे के मन की बात पूरी करने में अपने मन को दे देना होगा । अत: जीते-जी बिना मरे सेवा की भी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अपने पास अपने मन का न रहना ही जीते-जी मरना है । जब तक अपने पास अपना मन रहता है, तब तक मृत्यु में जीवन प्रतीत होता है और जब अपने पास अपना मन नहीं रहता, तब जीवन में ही मृत्यु का अनुभव होता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि अपने पास अपना मन न रहे, इसके लिए साधक को क्या करना है ? तो कहना होगा कि साधक का जिनसे सम्बन्ध है, उनके मन से अपना मन मिला देना चाहिए, पर उसी अंश में जिस अंश में उनका हित हो ।

यदि असमर्थता के कारण साधक दूसरों के मन की बात पूरी न कर सके, तो उसे नम्रतापूर्वक दुखी हृदय से क्षमा माँग लेनी चाहिए । ऐसा करने से भी साधक का मन साधक के समीप न रहेगा, क्योंकि किसी के मन की बात पूरी करना अथवा मन की बात पूरी न करने के दुःख से दुखी होना समान अर्थ रखता है । अत: योगी, विवेकी, प्रेमी और सेवक होने के लिए जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करना है । योग से सामर्थ्य, विवेक से अमरत्व और प्रेम से अगाध अनन्त रस की उपलब्द्धि सुगमतापूर्वक हो सकती है, जो वास्तविक जीवन है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 38-39)