Sunday 15 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 15 June 2014 
(आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

इच्छाओं का अन्त होते ही देहाभिमान गल जाता है । फिर सभी अवस्थाओं से अतीत जो सभी अवस्थाओं का प्रकाशक है, उस स्वयं प्रकाश नित्य-जीवन से अभिन्नता हो जाती है; अथवा यों कहो कि शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को उसके समर्पित कर देना है, जो सर्व का प्रकाशक है, जिससे सभी सत्ता पाते हैं, जो सभी का सब कुछ है और सबसे अतीत भी है । उसका सम्बन्ध, उसकी जिज्ञासा तथा उसकी स्मृति और प्रीति के उदय होने पर ही जीवन में मृत्यु का अनुभव हो सकता है; क्योंकि उसका सम्बन्ध अन्य सम्बन्धों को खा लेता है, उसकी जिज्ञासा भोगेच्छाओं को भस्म कर देती है, उसकी स्मृति अन्य की विस्मृति कराने में समर्थ है और उसकी प्रीति उससे दूरी तथा भेद मिटाने में हेतु है, अथवा यों कहो कि अनन्त की प्रीति अनन्त से अभिन्न कर देती है ।

जीवन में ही मृत्यु का अनुभव किये बिना कोई भी योगी, विवेकी और प्रेमी नहीं हो सकता, क्योंकि योगी होने के लिए भोग-वासनाओं का अन्त करना होगा और भोग-वासनाओं का अन्त करने के लिए अपने को तीनों शरीरों से अलग अनुभव करना होगा । इस दृष्टि से योग की सिद्धि के लिए भी जीवन में ही मृत्यु का अनुभव अनिवार्य है । विवेकी होने के लिए भी साधक को समस्त दृश्य से अपने को विमुख करना है, अर्थात् दृष्टि को दृश्य से विमुख कर अमरत्व से अभिन्न करना है । अत: उसके लिए भी निराधार होकर जीवन ही में मृत्यु स्वीकार करना अनिवार्य है । इसी प्रकार प्रेमी होने के लिए भी जीते-जी ही मरना होगा, क्योंकि प्रेमी वही हो सकता है, जो सब प्रकार की चाह से रहित हो और अपना सर्वस्व अपने प्रेमास्पद को बिना किसी शर्त के समर्पित कर दे ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 37-38)