Saturday 14 June 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 14 June 2014 
(आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का सदुपयोग

परिवर्तनशील जीवन से निराश होते ही जीवन ही में मृत्यु का अनुभव हो जाता है । साधक सब ओर से विमुख होकर अपने ही में अपने वास्तविक जीवन से अभिन्न हो, अमर हो जाता है । फिर शरीर आदि प्रत्येक वस्तु अपने से स्पष्ट अलग अनुभव होती है । इतना ही नहीं, कर्म चिन्तन, स्थिति आदि सभी अवस्थाओं से असंगता हो जाती है और जड़ता का अन्त हो जाता है, अथवा यों कहो कि दिव्य चिन्मय जीवन से अभिन्नता हो जाती है ।

उत्पत्ति-विनाश का तो एक क्रम है, जो धीरे-धीरे होता रहता है; परन्तु अमरत्व से अभिन्नता वर्तमान ही में हो जाती है; क्योंकि वह सर्वकाल में ज्यों-का-त्यों है अथवा यों कहो कि काल से अतीत है । जीवन ही में मृत्यु का अनुभव और अमरत्व की प्राप्ति युगपत होती है; पर जीवन ही में मृत्यु का अनुभव तब हो सकता है, जब शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी से सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जाए, जो विवेकसिद्ध है । विवेक अभ्यास नहीं है, अपितु निज-ज्ञान का आदर है । इस कारण वर्तमान में ही फल देता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि शरीर आदि से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर क्या वर्तमान कार्य हो सकेगा ? तो कहना होगा कि सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही कार्य सुन्दरतापूर्वक हो सकता है; क्योंकि सम्बन्ध-विच्छेद होने से अनासक्ति आ जाती है, जो सभी दोषों को खा लेती है, अथवा यों कहो कि इससे इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी शुद्ध हो जाते हैं । इनके शुद्ध होने से समस्त व्यवहार पवित्र तथा सुन्दर होने लगते हैं, क्योंकि अशुद्धि ही कर्तव्य में दोष उत्पन्न करती है । शुद्धि तो कर्तव्यनिष्ठ बनाती है । इस दृष्टि से अमरत्व की प्राप्ति तथा वर्तमान जीवन का सदुपयोग, ये दोनों जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करने में निहित हैं ।

अब यदि कोई यह प्रश्न करे कि जीवन में ही मृत्यु का अनुभव कैसे किया जाए ? तो इस समस्या को हल करने के लिए साधक को सर्वप्रथम जीवन और मृत्यु के स्वरूप को जानना होगा । वर्तमान जीवन क्या है ? जीवन-शक्ति, प्राण और इच्छाओं का समूह । मृत्यु क्या है ? प्राण-शक्ति का व्यय हो जाना और इच्छाओं का शेष रह जाना । जीवन में ही मृत्यु का अनुभव करने के लिए साधक को प्राणों के रहते हुए ही इच्छाओं का अन्त करना होगा ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 36-37)