Friday, 13
June 2014
(ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान जीवन का
सदुपयोग
जीवन का सदुपयोग तभी हो सकता है, जब वर्तमान जीवन में ही अर्थात्
प्राणों के रहते हुए ही मृत्यु का अनुभव हो जाए । यह तभी सम्भव होगा, जब निज-विवेक के प्रकाश में परिवर्तनशील जीवन का अध्ययन किया जाए । यह सभी
को मान्य होगा कि प्रत्येक वस्तु, अवस्था और परिस्थिति निरन्तर
बदल रही है; उसमें स्थायित्व मानना निज-विवेक का अनादर है । जिसे
साधारण दृष्टि से स्थिति कहते हैं, वह वास्तव में परिवर्तन का
क्रम है, और कुछ नहीं; अथवा यों कहो कि
समस्त वस्तुएँ अमरत्व की ओर दौड़ रही हैं, क्योंकि परिवर्तन के
ज्ञान में ही अपरिवर्तन की लालसा विद्यमान है ? उस लालसा की पूर्ति
वर्तमान में हो सकती है, क्योंकि जो उत्पत्ति विनाश-रहित है,
उससे देश-काल की दूरी नहीं हैं और जिसमें देश-काल की दूरी नहीं है,
वह वर्तमान में ही प्राप्त हो सकता है ।
परिवर्तनशील जीवन की आशा में आबद्ध प्राणी न तो वर्तमान जीवन का सदुपयोग
कर पाता है, न अमरत्व से अभिन्न हो सकता है और न मृत्यु से ही बच सकता है । अत: परिवर्तनशील
जीवन से निराश होकर साधक को वर्तमान जीवन का सदुपयोग करने तथा अमरत्व की प्राप्ति के
लिए प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि अमरत्व से जातीय तथा स्वरूप
की एकता है । जिससे स्वरूप की एकता है, उसकी प्राप्ति अनिवार्य है । जिसकी प्राप्ति
अनिवार्य है, उससे निराश होना प्रमाद है और जिसमें सतत परिवर्तन
है, उसकी आशा करना भूल है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 35-36)।