Friday 9 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 09 May 2014 
(वैशाख शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवृत्ति और निवृत्ति

सर्वहितकारी प्रवृत्ति की रुचि सहज निवृत्ति के लिए अपेक्षित है और सहज निवृत्ति काम का अन्त करने का साधन है । साधन में कर्तृत्वभाव तभी तक रहता है, जब तक साधक का समस्त जीवन साधन नहीं बन जाता । साधक का समस्त जीवन तब तक साधन नहीं बन सकता, जब तक वह करने और पाने की रुचि में आबद्ध रहता है ।

करने और पाने की रुचि तब तक रहती है, जब तक हम उस अनन्त से मिली हुई योग्यता, सामर्थ्य तथा वस्तुओं को अपनी मानते हैं और उनके आधार पर अपना व्यक्तित्व स्वीकार करते हैं, जो अविवेकसिद्ध है; कारण, कि समस्त सृष्टि एक है, उसका प्रकाशक, उसका ज्ञाता और उसका आधार भी एक है, तो फिर हमारे व्यक्तित्व के लिए स्थान ही कहाँ है ? जिसे हम अपना मानते हैं, वह उस सृष्टि का ही एक अंश है । अत: वह उसी की वस्तु है, जिसकी यह सृष्टि है । व्यक्तित्व का अभिमान गलाने के लिए सर्वहितकारी प्रवृत्ति तथा निवृत्ति की अपेक्षा है । सर्वहितकारी प्रवृत्ति हमें ऋण से मुक्त कर सुन्दर समाज का निर्माण करती है और निवृत्ति हमें स्वाधीनता प्रदान कर अनन्त से अभिन्न करती है, जिसमें वास्तविक जीवन है ।

सब प्रकार के संघर्ष का अन्त सर्वहितकारी प्रवृत्ति में निहित है; क्योंकि सर्वहितकारी प्रवृत्ति स्नेह की एकता प्रदान करती है । प्रवृत्ति स्वरूप से छोटी हो या बड़ी; परन्तु उसके मूल में यदि सर्वहितकारी भाव है, तो वह विभु हो जाती है। वह विश्व-शान्ति की स्थापना में समर्थ है; क्योंकि स्नेह की एकता वह काम नहीं करने देती, जो नहीं करना चाहिए और वह स्वत: होने लगता है, जो करना चाहिए । उसके होते ही जीवन में व्यापकता आ जाती है, जिसके आते ही सब प्रकार की आसक्तियों का अन्त हो जाता है । आसक्तियों का अन्त होते ही उस दिव्य चिन्मय प्रीति का उदय होता है, जो अपने ही में अपने प्रीतम को मिलाकर नित-नव रस प्रदान करती है । यही हमारी वास्तविक आवश्यकता है ।


 - ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 8-9)