Thursday, 08
May 2014
(वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवृत्ति और निवृत्ति
रागरहित होने के लिए सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सहज निवृत्ति साधनरूप है, साध्य नहीं । अत: हमें
अपने में से, 'मैं सर्वहितैषी हूँ', 'मैं
अचाह हूँ' अथवा 'मुझे अपने लिए संसार से
कुछ नहीं चाहिए' - यह अहंभाव भी गला देना
चाहिए । यह तभी सम्भव होगा, जब सर्वहितक।री प्रवृत्ति होने पर
भी अपने में करने का अभिमान न हो और चाहरहित होने पर भी, 'मैं
चाहरहित हूँ' -ऐसा भास न हो; कारण,
कि अहंभाव के रहते हुए वास्तव में कोई अचाह हो नहीं सकता, क्योंकि सेवा तथा त्याग का अभिमान भी किसी राग से कम नहीं है ।
सूक्ष्म राग कालान्तर में घोर राग में आबद्ध कर देता है । राग का अत्यन्त
अभाव तभी हो सकता है, जब दोष की उत्पत्ति न हो और गुण का अभिमान न हो; क्योंकि
अभिमान के रहते हुए अनन्त से अभिन्नता सम्भव नहीं है और उसके बिना कोई भी वीतराग हो
ही नहीं सकता; कारण, कि सीमित अहंभाव के
रहते हुए राग का अत्यन्त अभाव नहीं हो सकता ।
सर्वहितकारी प्रवृत्ति ही वास्तविक निवृत्ति की जननी है; क्योंकि सर्वात्म-भाव दृढ़
होने पर ही निवृत्ति आती है और सर्वहितकारी प्रवृत्ति से ही सर्वात्म-भाव की उपलब्धि
होती है । अपने ही समान सभी के प्रति प्रियता उदय हो जाने पर ही सर्वहितकारी प्रवृत्ति
की सिद्धि होती है । सर्वहितकारी प्रवृत्ति वास्तव में किए हुए संग्रह का प्रायश्चित्त
है, कोई विशेष महत्व की बात नहीं है और निवृत्ति प्राकृतिक विधान
है; उसे अपनी महिमा मान लेना मिथ्या अभिमान को ही जन्म देना है,
और कुछ नहीं । अत: प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही जीवन मत मान लो । प्रवृत्ति-निवृत्ति
रूप साधन से वास्तविक जीवन की प्राप्ति हो सकती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 7-8) ।