Wednesday, 7 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 07 May 2014 
(वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

प्रवृत्ति और निवृत्ति

जीवन का अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि समस्त जीवन दो भागों में विभाजित है - प्रवृत्ति और निवृत्ति । यद्यपि उन दोनों भागों का उद्देश्य एक है; क्योंकि जीवन एक है; परन्तु उद्देश्य-पूर्ति के लिए साधन-दृष्टि से दो भागों में विभाजन हो सकता है ।

प्रत्येक प्रवृत्ति का उद्गम स्थान देहाभिमान तथा विद्यमान राग है । प्रत्येक प्रवृत्ति के अन्त में निवृत्ति का आना स्वाभाविक है; क्योंकि प्रवृत्ति से प्राप्त शक्ति का व्यय होता है और निवृत्ति द्वारा पुन: शक्ति का संचय होता है । विद्यमान राग की निवृत्ति में ही प्रवृत्ति का सदुपयोग निहित है और नवीन राग की उत्पत्ति न होने तथा प्रवृत्ति की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए ही निवृत्ति अपेक्षित है ।

अब हमें अपनी प्रवृत्तियों का निरीक्षण करना है कि हमारी प्रवृत्तियाँ सुख-भोग की आसक्ति तथा देहाभिमान को पुष्ट करने में हैं अथवा बिद्यमान राग की निवृत्ति में । जिन प्रवृत्तियों के द्वारा हम वस्तु व्यक्ति आदि से अपने सुख-सम्पादन की आशा करते हैं - वे सभी देहाभिमान को पुष्ट करती हैं और हमें लोभ, मोह आदि दोषों में आबद्ध करती हैं । अत: ऐसी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रवृत्ति की सार्थकता सिद्ध नहीं होती, अपितु दोषों की ही वृद्धि होती है, जिससे हम जड़ता और शक्तिहीनता में आबद्ध हो जाते हैं ।

परन्तु जिन प्रवृत्तियों में दूसरों का हित तथा प्रसन्नता निहित है, वे प्रवृत्तियाँ विद्यमान राग की निवृत्ति करने में समर्थ हैं और उनके अन्त में स्वभाव से ही वास्तविकता की जिज्ञासा जागृत होती है । जिज्ञासा नवीन राग को उत्पन्न नहीं होने देती, अपितु सहज निवृत्ति को जन्म देती है, जो विकास का मूल है । सहज निवृत्ति से आवश्यक सामर्थ्य स्वत: प्राप्त होती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 6-7)