Tuesday, 06
May 2014
(वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
निस्संदेहता से लक्ष्य
की प्राप्ति
अब यदि कोई यह कहे कि हम तो शरीर आदि पर विश्वास न करके अपने पर विश्वास
करेंगे । तो कहना होगा कि किसी ने अपने को इन्द्रिय, मन, बुद्धि
आदि के द्वारा देखा नहीं । बुद्धि आदि के द्वारा जिसे देखा, वह
विश्वास के योग्य नहीं और जिसने बुद्धि आदि को जाना, वह किसी
मान्यता में आबद्ध नहीं हो सकता ।
अब कोई यह कहे कि हम तो उसी का नाम 'मैं' मान लेते
हैं । तो पूछना होगा कि फिर 'है' किसको
मानोगे ? 'मैं', 'है' की अपेक्षा सीमित है । अत: अपने पर विश्वास की बात कहना भी तो मानना ही है,
जानना नहीं । हाँ, यह हो सकता है कि हम उस अनन्त
की कृपाशक्ति को ही अपनी कृपा मान लें, अथवा उस अनन्त को ही हम
अपना स्वरूप मान लें, परन्तु ऐसी मान्यता का अर्थ यह होगा मानो
जल-कण कहता है कि समस्त सागर मेरा है । सागर तो यह कह सकता है कि जल-कण मेरा ही स्वरूप
है, पर जल-कण का ऐसा कहना उपयुक्त नहीं मालूम होता ।
जल-कण यह तो कह सकता है कि मैं सागर का हूँ, मेरी और सागर की जाति में
कोई भेद नहीं है । अथवा यों कहो कि जल-कण सागर की प्रीति बनकर सागर में ही निवास कर
सकता है । इस दृष्टि से उस 'एक' का विश्वास
ही हमें निस्संदेहता प्रदान कर सकता है । अत: जिज्ञासा की पूर्ति में अथवा एक विश्वास
में ही निस्संदेहता निहित है ।
सन्देह से निस्संदेहता प्राप्त करना जिज्ञासुओं की साधना है और विश्वास
से निस्संदेहता प्राप्त करना विश्वास-मार्गियों की साधना है । यह नियम है कि जब अनेक
विश्वास एक विश्वास में विलीन हो जाते हैं, तब अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में
और अनेक इच्छाएँ एक प्रिय-लालसा में विलीन हो जाती हैं । प्रिय-लालसा प्रिय से अभिन्न
करने में समर्थ है । इस दृष्टि से विश्वास के आधार पर वास्तविक जीवन की प्राप्ति हो
सकती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन
भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 4-5) ।