Monday, 5 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 05 May 2014 
(वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
निस्संदेहता से लक्ष्य की प्राप्ति

'यह', 'मैं' नहीं है, इसे स्वीकार करते ही 'यह' से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् 'यह' की ममता मिट जाती है, जिसके मिटते ही जीवन ही में मृत्यु का अनुभव हो जाता है । फिर 'मैं' सब ओर से विमुख होकर अपने ही में अपने वास्त्विक जीवन को पा लेता है । इस दृष्टि से 'यह' को जानते ही 'मैं' को और 'मैं' को जानते ही वास्तविकता को जानकर निस्संदेह हो जाता है । निस्संदेहता प्राप्त होते ही सभी समस्याएँ स्वत: हल हो जाती हैं ।

अत: निस्संदेहता प्राप्त करने के लिए हमें वर्तमान में ही प्रयत्नशील होना चाहिए । जब तक सन्देह की वेदना अत्यन्त तीव्र नहीं हो जाती, तब तक सन्देह मिटाने की योग्यता नहीं आती । यहाँ तक कि यदि किसी को प्यास लगी हो और उससे कहा जाए कि तुम पहले पानी पीना चाहते हो अथवा निस्संदेह होना चाहते हो ? इस पर यदि वह यह कहे कि मुझे निस्संदेह होना है, पानी नहीं पीना है, तो समझना चाहिए कि सन्देह की वेदना जागृत् हो गई । असह्य वेदना होते ही उसकी निवृत्ति स्वत: हो जाती है । यह सब कुछ जिसके प्रकाश से प्रकाशित है और जिसकी सत्ता से सत्ता पाता है, उसकी कृपाशक्ति स्वत: सन्देह-निवृत्ति की योग्यता प्रदान कर देती है, क्योंकि वह सब प्रकार से समर्थ है ।

अब यदि कोई यह कहे कि जिसकी कृपाशक्ति जिज्ञासु की जिज्ञासा पूर्ति को सामर्थ्य प्रदान करती है, उसे हम कैसे मान लें, जब कि जानते नहीं हैं ? तो कहना होगा कि जिसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते हैं; उसी को तो मानना है । जानने के पश्चात् तो मानने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । अथवा जिसके सम्बन्ध में कुछ जानते हैं, उस पर तो सन्देह हो सकता है, विश्वास नहीं । विश्वास उसी पर किया जाता है, जिसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते । वह एक ही विश्वास करने योग्य है । शरीर, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदि कोई भी जो  'यह' के अर्थ में आते हैं, विश्वास करने योग्य नहीं हैं; क्योंकि इन सबसे हमारा नित्य-सम्बन्ध नहीं हो सकता ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 2-4)