Sunday 4 May 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 04 May 2014 
(वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७१, रविवार)

निस्संदेहता से लक्ष्य की प्राप्ति

जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि निस्संदेहता के बिना न तो साधन का निर्माण हो सकता है और न साध्य की उपलब्धि ही । इस दृष्टि से निस्संदेहता साधन की भूमि है और साधन के निर्माण में ही साध्य की प्राप्ति है ।

अब विचार यह करना है कि निस्संदेहता प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना चाहिए ? तो कहना होगा कि निस्संदेहता दो प्रकार से प्राप्त होती है - एक तो जिज्ञासा की पूर्ति में और दूसरी विकल्परहित विश्वास में । जब तक जिज्ञासा की पूर्ति नहीं होती, तब तक भी निस्संदेहता नहीं आती और जब तक दो विश्वास रहते हैं, तब तक भी निस्संदेहता नहीं आती । संदेह की वेदना जिज्ञासा की जागृति में हेतु है और जिज्ञासा की जाग्रति कामनाओं की निवृत्ति का कारण है । कामनाओं की निवृत्ति से जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है; फिर निस्संदेहता स्वत: प्राप्त हो जाती है ।

सन्देह की उत्पत्ति सर्वदा अधूरी जानकारी में होती है, पूरी में नहीं तथा उस पर भी सन्देह नहीं होता, जिसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते । इस दृष्टि से सन्देह करने योग्य क्या है ? तो कहना होगा कि 'मैं' और 'यह' । क्योंकि 'यहकी प्रतीति तो हो रही है, पर उसकी पूरी जानकारी नहीं है और 'मैं' को मानते तो हैं, पर जानते नहीं । अत: जो प्रतीत हो रहा है, उस पर सन्देह हो सकता है और जो मान्यता है, उस पर भी सन्देह हो सकता है ।

यह सभी को मान्य होगा कि जिसे 'यह' कहते हैं, उसे  'मैं' नहीं कह सकते और जिसे 'मैं' कहते हैं, उसे 'यह' नहीं कह सकते एवं 'यह' और 'मैं', इन दोनों में नित्य-सम्बन्ध भी नहीं हो सकता; क्योंकि 'यह’ के परिवर्तन का जिसे ज्ञान है, उसे अपने परिवर्तन का ज्ञान नहीं है । इस दृष्टि से परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील का नित्य-सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता । हाँ, यह अवश्य है कि परिवर्तनशील से मानी हुई एकता हो सकती है; क्योंकि 'यह' से ममता कर सकते हैं, परन्तु नित्य-सम्बन्ध नहीं ।

इस दृष्टि से 'यह' और 'मैं' का विभाजन अनिवार्य है, जिसके करते ही भोग-वासनाओं का अन्त हो जाता है और केवल यही तीव्र जिज्ञासा जागृत होती है कि वास्तविकता क्या है ! ज्यों-ज्यों जिज्ञासा सबल और स्थाई होती जाती है, त्यों-त्यों जिज्ञासु का अहंभाव गलकर जिज्ञासा से अभिन्न होता जाता है । जिस काल में जिज्ञासा अहंभाव को खाकर पुष्ट हो जाती है, उसी काल में उसकी पूर्ति स्वत: हो जाती है, अर्थात् वह वास्तविकता से अभिन्न हो जाती है । फिर ‘सन्देह’ जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 1-2)