Thursday, 23 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 23 January 2014  
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        जो चाह-रहित जीवन पर विश्वास नहीं करते, वे निवृत्ति के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । हाँ, एक बात अवश्य है कि सर्वहितकारी प्रवृत्ति से वास्तविक निवृत्ति की  योग्यता आ जाती है और वास्तविक निवृत्ति से जीवन सर्वहितकारी प्रवृत्ति के योग्य बन जाता है । अत: हम जिस अंश में सुखी हों, उस अंश में सर्वहितकारी प्रवृत्ति द्वारा सुखासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करें और जिस अंश में दुखी हों, उस  अंश में अचाह होकर वास्तविक निवृत्ति द्वारा दुःख के भय  से मुक्त होकर अचाह-पद प्राप्त करें । अचाह होने पर भी हम अपने साधन का निर्माण कर सकते हैं और सुखासक्ति मिट जाने पर भी हम अपने साधन का निर्माण कर सकते हैं ।

        अत: सुखासक्ति से मुक्त होकर तथा दुःख के भय से रहित होकर हम बहुत सुगमतापूर्वक प्रत्येक परिस्थिति में साधन-निर्माण कर विद्यमान मानवता विकसित कर सकते हैं, जिसके आ जाने पर बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर स्वत: हो जाता है । बल का सदुपयोग करने से हम बल की दासता से मुक्त हो जाते हैं, और विवेक का आदर करने से बल के सदुपयोग की योग्यता आ जाती है । बल का सदुपयोग वही कर सकता है, जो बल का दास नहीं है, अपितु उसका स्वामी है । बल का दास तो बेचारा बल के अभिमान में आबद्ध रहता है, जो वास्तव में एक निर्बलता है । बल का सदुपयोग करते समय बल को निर्बलों का अधिकार ही समझना चाहिये, तभी बल की दासता से मुक्त हो सकेंगे । 

        विवेक का आदर करने पर देहाभिमान मिट जाएगा, जिसके मिटते ही भिन्नता मिट जायगी । भिन्नता मिटते ही सब प्रकार के संघर्षों का अन्त हो जाएगा और फिर स्नेह की एकता प्राप्त होगी, जो वास्तव में मानवता है । स्नेह की एकता प्राप्त होने पर वास्तविक निर्दोषता प्राप्त होती है, और निर्दोषता आ जाने पर एक ऐसे अनुपम जीवन की उपलब्धि होती है, जिसके लिए कोई परिस्थिति अपेक्षित नहीं है, अर्थात् जो सभी परिस्थितियों से अतीत है । बलवान उस जीवन को बल के सदुपयोग से और निर्बल उस जीवन को अन्तर-बाह्य मौन, अचिंतता एवं निवृत्ति से प्राप्त कर सकते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक मानव अपनी योग्यतानुसार साधन-निर्माण करने में सर्वदा स्वतन्त्र है, और यह नियम है कि प्राप्त योग्यतानुसार साधन का निर्माण करने पर साधक साध्य से अभिन्न हो जाता है ।। ऊँ ।।

- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 59-60) ।