Friday, 24 January 2014
(माघ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर
बल के सदुपयोग का अर्थ है - हमारा बल किसी और की निर्बलता का हेतु न बन जाय, और विवेक के आदर का अर्थ है - हम अपने को धोखा न दें । झूठ क्या है ? जिसे हम स्वयं जानते हैं । सत्य से असत्य की ओर हम तभी जाते हैं, जब हम अपने को धोखा देते हैं, और यह नियम है कि जब हम सत्य से असत्य की ओर जाते हैं, तभी अमरत्व से मृत्यु की ओर भी गतिशील होते हैं, अर्थात् हमारी गति विपरीत हो जाती है । यह विपरीत गति विवेक के अनादर का ही परिणाम है । जब हमसे कोई भूल हो जाती है, तो उसका कारण हम किसी और को मानने लगते हैं, जो वास्तव में हमारा प्रमाद है।
कोई कहने लगता है, हमारा संस्कार अच्छा नहीं था । कोई कहने लगता है, हमारी परिस्थिति अनुकूल नहीं थी । कोई कहता है, हमको योग्य गुरु नहीं मिला । कुछ लोग तो यहाँ तक कहेंगे कि प्रभु ने कृपा नहीं की । अर्थात्, हम अपनी भूल का कारण अपने को न मान कर, दूसरों को मानने लगते हैं, जो मानवता की दृष्टि से सही नहीं है । यह तो स्पष्ट ही है कि परिस्थिति चाहे जैसी हो, या तो सुखमय होगा या दुःखमय । सुखमय परिस्थिति में भी बल का दुरुपयोग और विवेक का अनादर किया जा सकता है और दुःखमय परिस्थिति में भी बल का सदुपयोग और विवेक का आदर किया जा सकता है । अत: परिस्थिति का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग तथा विवेक का आदर अथवा अनादर किसी परिस्थिति विशेष पर निर्भर नहीं है, अपितु इसमें मानवता अथवा अमानवता ही हेतु है ।
संस्कार जितने भी होते हैं, वे सब हमारे द्वारा ही सत्ता पाते हैं । यदि हम उन्हें स्वीकार न करें अथवा उनका शासन न मानें, तो बेचारे संस्कार अपने-आप मिट जाते हैं, अथवा बदल जाते हैं । यदि कोई कहे कि हमें योग्य गुरु नहीं मिला। तो हमें विचार करना चाहिए कि गुरु का काम क्या है ? गुरु का काम है - साधक की योग्यतानुसार साधन का निर्माण तथा उसके दोषों का ज्ञान कराना । दोनों बातें प्रत्येक भाई-बहिन अपने विवेक के आदर से स्वत: जान सकते हैं । अत: यह कहना भी नहीं बनेगा कि हमें योग्य गुरु नहीं मिला । कोई भी गुरु और ग्रन्थ हमें ऐसी बात बता ही नहीं सकते, जो कि हमारे विवेक में निहित नहीं है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 62-63) ।