Wednesday, 22 January 2014
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति
यह नियम है कि जिसके नाते जो कार्य किया जाता है, कर्त्ता प्रवृत्ति के अन्त में उसी में विलीन हो जाता है, अर्थात् अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । तो यदि हम किसी की चाह पूरी कर सकते हैं, तो पूरी करें; किन्तु यह अवश्य देख लें कि जिसकी चाह पूरी करने हम जा रहे हैं, उसमें अपना सुख है, अथवा उसका हित है ? यदि उसमें आपको उसका हित दिखाई दे, तो अवश्य पूरा कर दें । यदि उसमें अपना सुख ही दिखाई दे, तो उसे दुःख का आह्वान समझें । यह बड़े ही रहस्य की बात है । जब हम किसी की चाह पूरी करने जायें और सोचें कि उसमें उसका हित निहित है, तो समझना चाहिये कि हम समाज के ऋण से मुक्त होकर आनन्द की ओर अग्रसर हो रहे हैं ।
आनन्द किसको मिलता है ? जिसकी प्रवृत्ति दूसरों के हित के लिये हो, और जिसकी निवृत्ति वासना-रहित हो । दुःख किसके पास आता है ? जिसकी प्रवृत्ति अपने सुख के लिये हो, अथवा जिसकी निवृत्ति वासना-युक्त हो । यदि आपको दुःख बुलाना है, तो अपने सुख के लिये प्रवृत्ति कीजिये । यदि आपको आनन्द अपनाना है, तो दूसरों के हित की प्रवृत्ति कीजिये । यदि असमर्थ हैं, तो शान्त हो जाइये, मौन हो जाइए । ऐसा करने से अहंभाव गल जाएगा, और अनन्त चिन्मय नित्य जीवन से अभिन्नता हो जायगी । जहाँ प्रवृत्ति के द्वारा साधन की सुविधा न हो, वहाँ वासना-रहित निवृत्ति अपना लेनी चाहिए । निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों दायें-बायें पैर के समान साधन-क्रम हैं । जैसे दोनों पैरों से यात्रा सुगमतापूर्वक हो जाती है, उसी प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति में हमारी जो साधना-रूप यात्रा है, वह सुगमतापूर्वक पूरी हो जाती है और हम अपने साध्य तक पहुँच जाते हैं ।
केवल प्रवृत्ति अथवा केवल निवृत्ति के द्वारा ही जो अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहते हैं, उनकी वही दशा होती है, जो एक पैर से यात्रा करने वाले की होती है, जिसमें सफलता की कोई आशा नहीं । सर्व हितकारी प्रवृत्ति, और वासना रहित निवृत्ति, ये साधना के मूल हैं । सर्वहितकारी प्रवृत्ति वही कर सकता है, जो यह विश्वास करता है कि विश्व एक जीवन है अथवा यह मानता है कि मेरा व्यक्तिगत जीवन विश्व के अधिकारों का समूह है। अथवा यों कहो कि जो कर्म-विज्ञान के रहस्य को जान लेता है, वह सर्वहितकारी प्रवृत्ति में परायण होता है । कारण कि, यह नियम है कि प्रवृत्ति द्वारा तभी अपना हित होता है, जब उस प्रवृत्ति में दूसरों का हित निहित हो और निवृत्ति द्वारा तभी अपना हित होता है, जब सभी वस्तुओं, अवस्थाओं तथा परिस्थितियों से अतीत के जीवन पर विश्वास हो और विवेक-पूर्वक अचाह-पद प्राप्त कर लिया हो ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 57-59) ।